________________
बन्धाधिकार
विशेषार्थ- जहाँ पर स्व और पर का विवेक नहीं होता है वही पर जीव के अध्यवसान भाव का उदय होता है, उसी को बोधनमात्रपन से बुद्धि कहते हैं, व्यवसायमात्रपन से व्यवसाय कहते हैं, मननमात्रपन से मति कहते हैं, विज्ञप्तिमात्रपन से विज्ञान कहते हैं, चेतनमात्रपन से चित्त कहते हैं, चित् के भवनमात्रपन से भाव कहते हैं, और चित् के परिणमनमात्रपन से परिणाम कहते हैं। ये जो बुद्धि आदि को लेकर आठ नाम कहे गये हैं वे सभी चेतन के परिणाम हैं। जब तक आत्मा और परपदार्थों का भेदज्ञान नहीं होता है तब ही तक ये होते हैं, भेदज्ञान के उत्पन्न होने से स्वयमेव वे चले जाते हैं ।। २७१ ।।
अब सब प्रकार का अध्यवसानभाव त्यागने योग्य है, यह कलशा में प्रकट करते हैं
शार्दूलविक्रीडितछन्द
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै
स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः ।
सम्यनिश्चयमेकमेव तदमी निष्कम्पमाक्रम्य किं
२८५
शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम् । । १७३ ।।
अर्थ- सर्व पदार्थों में जो अध्यवसानभाव है वह त्यागने योग्य है, ऐसा जिनेन्द्रभगवान् ने कहा है । इससे हम ऐसा मानते हैं कि अन्य पदार्थों के आश्रय से जितना भी व्यवहार है वह सभी छुड़ाया है । अतः ये सन्त पुरुष निष्कम्परूप से एक निश्चय का ही अच्छी तरह आलम्बन लेकर शुद्धज्ञानघन निजमहिमा में ही स्थिरता को क्यों नहीं धारण करते ?
भावार्थ- जिस प्रकार अध्यवसान भाव पर के आश्रय से होता है उसी प्रकार व्यवहारनय भी पर के आश्रय से होता है। जिनेन्द्र भगवान् ने सभी प्रकार का अध्यवसान भाव छोड़ने योग्य बतलाया है। उसका फलितार्थ यह निकलता है कि पर के आश्रय से होनेवाला व्यवहारनय भी छोड़ने योग्य है। इस तरह जब व्यवहारनय छोड़ने योग्य पदार्थों की कोटि में आता है तब सन्तपुरुष निश्चलभाव से एक निश्चय का ही अच्छी तरह आश्रय कर निश्चयनय के द्वारा प्रतिपादित शुद्धज्ञानघन जो निज की महिमा है उसी में स्थिरता को क्यों नहीं प्राप्त होते ? इस बात पर आश्चर्य प्रकट किया गया है । । १७३ ।।
Jain Education International
अब निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय प्रतिषिद्ध है, यह गाथा में दिखाते हैं—
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org