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समयसार
दाणि णत्थि जेसिं अज्जवसाणाणि एवमादीणि ।
ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिप्पंति ।। २७० ।।
अर्थ- ये जो पूर्व में अध्यवसानभाव कह आये हैं उन्हें आदि लेकर और भी जो अध्यवसानभाव हैं वे सब जिनके नहीं हैं वे मुनिमहोदय शुभ - अशुभ कर्म से लिप्त नहीं होते हैं ।
विशेषार्थ - निश्चय से अज्ञान, अदर्शन और अचारित्र के भेद से अध्यवसानभाव तीन प्रकार के हैं। इनके अन्दर सकल अध्यवसानभावों का समावेश हो जाता है। यही तीनों भाव स्वयं अज्ञानरूप होने से शुभ-अशुभ कर्मबन्ध के निमित्त हैं। यही दिखाते हैं- 'मैं इसको मारता हूँ' ऐसा जो यह अध्यवसानभाव है वह अज्ञानादिरूप है क्योंकि सद् अहेतुक और एक अज्ञप्तिक्रिया से युक्त आत्मा का तथा रागद्वेष के विपाक से तन्मय हननादि क्रियाओं का विशेष ज्ञान न होने से रागादि विभाव परिणामों से भिन्न आत्मा का बोध न होने के कारण अज्ञानरूप है, उसी तरह रागादि विभावपरिणामों से भिन्न आत्मा का दर्शन न होने से मिथ्यादर्शनरूप है, और रागादि विभावपरिणामों से भिन्न आत्मा का आचरण न होने से आचारित्र है । और 'यह धर्मद्रव्य जाना जाता है' इत्यादिरूप जो अध्यवसान है वह भी अज्ञानादिरूप है क्योंकि सद् अहेतुक और एक ज्ञानरूप आत्मा तथा ज्ञेयरूप धर्मादि द्रव्यों का विशेष ज्ञान न होने से परपदार्थ से भिन्न आत्मा का ज्ञान न होने के कारण जैसे अज्ञानरूप है उसी तरह परपदार्थ से भिन्न आत्मा का दर्शन न होने से मिथ्यादर्शनरूप है, और परपदार्थ से भिन्न आत्मा का आचरण न होने से अचारित्ररूप है। इसीसे ये सब अध्यवसानभाव बन्ध के ही निमित्त हैं। जिन महापवित्र आत्माओं के ये अध्यवसान नहीं हैं वे ही मुनिकुञ्जर हैं— श्रेष्ठ मुनिराज हैं । यही महानुभाव सद् अहेतुक एक ज्ञप्तिक्रियारूप, सद् अहेतुक एक ज्ञायकभावरूप और सद् अहेतुक एक ज्ञानरूप शुद्ध आत्मा को जानते हुए, उसी का अच्छी तरह अवलोकन करते हुए तथा उसी का आचरण करते हुए जिनके स्वच्छ-स्वच्छन्द और बहुत भारी अन्तर- ज्योति प्रकट हुई है ऐसे होते हुए अज्ञानादिरूपत्व का अभाव होने से शुभ-अशुभकर्म से लिप्त नहीं होते अर्थात् बन्ध को प्राप्त नहीं होते हैं ।। २७० ।।
अब अध्यवसानभाव क्या है, यह दिखाते हैं
बुद्धी ववसाओ वि य अज्झवसाणं मई य विण्णाणं ।
एक्कट्ठमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो । । २७१ । । अर्थ - बुद्धि, व्यवसाय, अध्यवसान, मति, विज्ञान, चित्त, भाव और परिणाम ये सब एकार्थवाचक ही हैं।
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