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________________ बन्धाधिकार २८३ विशेषार्थ- जिस प्रकार यह जीव जब हिंसा का अध्यवसान करता है अर्थात् 'मैं इसे मारूँ' ऐसा अभिप्राय करता है तब अपने को हिंसक बनाता है उसी प्रकार असत्यभाषण, आदि के अध्यवसान से अपने को असत्यभाषी आदि करता है। तथा उदय में आये हुए नारकभाव के अध्यवसाय से अपने आपको नारक, उदय में आये हुए तिर्यञ्च के अध्यवसाय से अपने आपको तिर्यञ्च, उदयागत मनुष्य के अध्यवसाय से अपने आप को मनुष्य, उदयागत देव के अध्यवसाय से अपने आपको देव, उदयागत सुखादि पुण्य के अध्यवसान से अपने आप को पुण्य और उदयागत दुःखादि पाप के अध्यवसान से अपने आप को पाप करता है। इसी प्रकार ज्ञायमान अर्थात् जानने में आये हुए धर्म के अध्यवसान से अपने आपको धर्म, ज्ञायमान अधर्म के अध्यवसान से अपने आपको अधर्म, ज्ञायमान अन्य जीव के अध्यवसान से अपने आपको अन्य जीव, ज्ञायमान पुद्गल के अध्यवसाय से अपने आपको पुद्गल, ज्ञायमान लोकाकाश के अध्यवसान से अपने आपको लोकाकाश और ज्ञायमान अलोकाकाश के अध्यवसाय से अपने आपको अलोकाकाशरूप करता है।। २६८-२६९।। अब इस अध्यवसानभाव की निन्दा करते हुए कलशकाव्य कहते हैं इन्द्रवज्राछन्द विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यत्प्रभावा दात्मानमात्मा विदधाति विश्वम्। मोहैव कन्दोऽध्यवसाय एष नास्तीह येषां यतयस्त एव।।१७२।। अर्थ- विश्व से भिन्न होने पर भी जिसके प्रभाव से आत्मा अपने आपको विश्वरूप करता है तथा मोह ही जिसकी एक जड़ है ऐसा अध्यवसानभाव जिनके नहीं है वे ही यति हैं। भावार्थ- यह अध्यवसानभाव समस्त अनर्थों का स्थान है। मोह अर्थात् मिथ्यात्व से इसकी उत्पत्ति होती है। इसके प्रभाव से यह जीव अपने आपको नानारूप मानता है। जबकि वस्तुस्वरूप की अपेक्षा पर से भिन्न और स्वीय-स्वरूप से अभिन्न है। इस अध्यवसान को जिन्होंने नष्ट कर दिया है वे ही यति हैं। उन्हीं का संसारपरिभ्रमण से उपरम हुआ है।।१७२।। आगे कहते हैं कि जो मुनि इस अध्यवसाय से रहित हैं वे ही कर्मों से लिप्त नहीं होते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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