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समयसार
विशेषार्थ- निश्चयकर मैं बँधता हूँ अथवा छुड़ाता हूँ, ऐसा जो अध्यवसानभाव है, इसकी स्वार्थक्रिया जीवों को बँधाना और छुड़ाना है, परन्तु जीव तो इस अध्यवसानभाव का सद्भाव होने पर भी स्वकीय, सराग, वीतराग परिणामों के अभाव से न बँधता और न छूटता है अर्थात् किसी जीव ने यह अध्यवसानभाव किया कि यह बन्ध को प्राप्त हो जावे अथवा ऐसा भाव किया कि अमुक जीव कर्मबन्धन से छूट जावे, परन्तु उस जीव के उस प्रकार का भाव होने से न तो वह जीव बँधता है और न छूटता है और यदि उन जीवों के सराग तथा वीतराग परिणाम हो जावे, तो इस अध्यवसानभाव का अभाव होने पर भी वे जीव बँध जाते हैं और छूट जाते हैं, अतएव यह अध्यवसानभाव पर में अकिञ्चित्कर होने से स्वार्थक्रियाकारी नहीं है, इसीसे मिथ्या है।।२६७।। अब इस निष्फल अध्यवसान का कार्य बताने के लिये कलशा कहते हैं
अनुष्टुप्छन्द अनेनाध्यवसानेन निष्फलेन विमोहितः।
तत्किञ्चनापि नैवास्ति नात्मात्मानं करोति यत्।। १७१ । । अर्थ- इस निष्फल अध्यवसानभाव के द्वारा मोहित हुआ आत्मा, ऐसा कुछ नहीं है जिस रूप अपने को न करता हो।
भावार्थ- इस अध्यवसानभाव के कारण यह जीव अपने आप में सबका कर्तृत्व प्रकट करता है।।१७१।।
आगे इसी अर्थ को गाथा में कहते हैं
सव्वे करेइ जीवो अज्झवसाणेण तिरियणेरयिए। देवमणुये य सव्वे पुण्णं पावं च णेयविहं ।।२६८।। धम्माधम्मं च तहा जीवाजीवे अलोयलोयं च। सव्वे करेइ जीवो अज्झवसाणेण अप्पाणं।।२६९।।
(जुगल) अर्थ- जीव अध्यवसानभाव के द्वारा सम्पूर्ण तिर्यञ्च, नारकी, देव और मनुष्य सभी को अपने रूप करता है और अनेक प्रकार के पुण्य-पाप को तथा धर्म-अधर्म, जीव-अजीव और लोक-अलोक इन सभी को जीव अध्यवसान के द्वारा आत्मस्वरूप करता है।
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