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________________ धाधिकार अध्यवसानभाव नहीं होता, क्योंकि वन्ध्यापुत्र अलीक है और अलीक का अध्यवसान नहीं होता। इससे यह नियम है कि निराश्रय अध्यवसानभाव नहीं होता । अतः अध्यवसान का आश्रयभूत बाह्य वस्तु का अत्यन्त प्रतिषेध आचार्यों ने बताया है, क्योंकि हेतु के निषेध से हेतुमान् का भी निषेध हो जाता है । यद्यपि बाह्य वस्तु बन्ध के कारण का कारण है तो भी बाह्य वस्तु बन्ध का जनक नहीं है। जैसे ईर्यासमिति में सावधान यतीन्द्र के पद से कोई काल का प्रेरा सूक्ष्म जीव यदि मरण को भी प्राप्त हो जावे तो भी ईर्यासमिति में सावधान यतीन्द्र के तन्मरण सम्बन्धी बन्ध नहीं होता। अत: बाह्य वस्तु बन्ध के हेतु में नियमरूप से हेतु भी नहीं है क्योंकि यहाँ पर बाह्य क्रिया तो हो गयी परन्तु अध्यवसान नहीं हुआ। अतएव बाह्य पदार्थ जीव का तद्भाव न होने से बन्ध का कारण नहीं है, अध्यवसान ही जीव का तद्भाव है । अत: वही बन्ध का कारण है ।। २६५ । २८१ इस प्रकार बन्ध के कारणपन से निर्धारित जो अध्यवसानभाव है, उसके स्वार्थक्रियाकारित्व का अभाव होने से मिथ्यापन को दिखाते हैंदुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि । जा एसा मूढमई णिरत्थया सा हु दे मिच्छा ।। २६६ ।। अर्थ- हे जीव ! तेरी जो यह मूढ बुद्धि है कि मैं जीवों को दुःखी करता हूँ, सुखी करता हूँ, बाँधता हूँ तथा छोड़ता हूँ, यह सब निरर्थक है, अतएव निश्चय से मिथ्या है। विशेषार्थ- परजीवों को मैं दुःखी करता हूँ, सुखी करता हूँ, बन्धन में डालता हूँ तथा छोड़ देता हूँ, यह जो अध्यवसानभाव हैं सो वे सभी अध्यवसानभाव परपदार्थ में अपना व्यापार करने को असमर्थ हैं । इसीसे इसके स्वार्थक्रियाकारित्व का अभाव है। अतएव इस अध्यवसानभाव के 'आकाश के फूल को चयन करता हूँ इस अध्यवसान की तरह मिथ्यारूपता ही है और वह केवल आत्मा के अनर्थ के लिये ही है।।२६६।। Jain Education International अब अध्यवसान स्वार्थंक्रियाकारी क्यों नहीं है, यह दिखाते हैंअज्झवसाणणिमित्तं जीवा बज्झति कम्मणा जदि हि । मुच्चति मोक्खमग्गे ठिदा य ता किं करोसि तुमं । । २६७ ।। अर्थ- यदि जीव अध्यवसान के निमित्त से कर्मों के द्वारा बन्ध को प्राप्त होते हैं और यदि मोक्षमार्ग में स्थित होकर कर्मों से छूट जाते हैं तो तूं क्या करता है ? For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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