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बन्धाधिकार
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आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । आउं ण हरंति तुहं कह ते मरणं कयं तेहिं ।।२४९।।
(युग्मम्) अर्थ- जीवों का मरण आयु:कर्म के क्षय से होता है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा गया है। जब तुम पर की आयु का हरण करने में समर्थ नहीं हो, तब तुमने उन जीवों का मरण कैसे किया? आयु:कर्म का क्षय होने से जीवों का मरण होता है, ऐसा जिनवरदेवों के द्वारा कहा गया है। तुम्हारी आयु को जब अन्य हरण करने में समर्थ नहीं तब अन्य के द्वारा तुम्हारा मरण किस प्रकार किया गया?
विशेषार्थ- जीवों का जो मरण है वह स्वकीय आय:कर्म के क्षय से होता है क्योंकि उसके अभाव में मरण का होना असम्भव है। और अन्य का अपना आयुःकर्म अन्य के द्वारा हरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि स्वकीय उपभोग से ही उसका क्षय होता है। इससे यह निश्चय हुआ कि पुरुष अन्य पुरुष का मरण किसी भी तरह नहीं कर सकता। जब यह बात है तब मैं पर की हिंसा करता हूँ
और परके द्वारा मेरी हिंसा की जाती है, ऐसा अध्यवसाय निश्चय अज्ञान है।।२४८। २४९।।
फिर पूछते हैं कि मरण के अध्यवसाय को अज्ञान कहा, यह तो जान लिया, अब मरण का प्रतिपक्षी जो जीवन का अध्यवसाय है उसकी क्या कथा है, इसका उत्तर देते हैं
जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामि य परेहिं सत्तेहिं। सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो।।२५०।।
अर्थ- जो आत्मा ऐसा मानता है कि परजीवों को मैं जीवित करता हूँ तथा परजीवों के द्वारा मैं जीवित किया जाता हूँ वह मूढ है, अज्ञानी है और ज्ञानी इससे विपरीत है।
विशेषार्थ- परजीवों को जिवाता हूँ और परजीवों के द्वारा मैं जिवाया जाता हूँ ऐसा जो अध्यवसाय है वह निश्चय से अज्ञानभाव है। ऐसा अज्ञानभाव जिस जीव के है वह अज्ञानी होने से मिथ्यादृष्टि है और जिसके यह अज्ञानभाव नहीं है वह ज्ञानी होने से सम्यग्दृष्टि है।
बहुत से जीव अहंबुद्धि के वशीभूत होकर ऐसा मानते हैं कि हम परप्राणियों की जीवनक्रिया के कर्ता हैं। यदि हम उन्हें आश्रय न देते तो उनका जीवन रहना
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