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समयसार
है। करनेवाले का जो कर्म है वह निश्चय से राग है और राग को अज्ञानमय अध्यवसाय कहते हैं, मिथ्यादृष्टि जीव के यह अध्यवसाय नियम से रहता है और वही उसके बन्ध का कारण है।
भावार्थ- सम्यग्दृष्टि जीव पदार्थ को मात्र जानता है। उसके साथ राग-द्वेष नहीं करता और मिथ्यादृष्टि जीव पदार्थ को जानता हुआ साथ में राग-द्वेष भी करता है। मिथ्यादृष्टि जीव का यह राग-द्वेष परमार्थ से अज्ञानमय रहता है। इसे ही आचार्यों ने अध्यवसाय कहा है। यह अध्यवसाय ही मिथ्यादृष्टि के बन्ध का कारण माना गया है। सम्यग्दृष्टि जीव के ऐसा अध्यवसाय नहीं रहता, इसलिये उसके बन्ध नहीं होता। सम्यग्दृष्टि जीव पदार्थ को मात्र जानता है, अपने आप को उसका कर्ता नहीं मानता और मिथ्यादृष्टि जीव पदार्थ को जानता हआ उसका अपने आप को कर्ता मानता है, इसलिये वह मात्र ज्ञाता नहीं होता। जहाँ मात्र ज्ञातृत्व है वहाँ बन्ध नहीं होता और जहाँ कर्तृत्व भी साथ में लगा रहता है वहाँ बन्ध अवश्य होता है।।१६७।।
अब मिथ्यादृष्टि का अभिप्राय गाथा में कहते हैं
जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं। सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो।।२४७।।
अर्थ- जो जीव ऐसा मानता है कि मैं परजीवों को मारता हूँ और परजीवों के द्वारा मैं मारा जाता हूँ, ऐसा मानने वाला जीव मूढ है तथा अज्ञानी है। परन्तु ज्ञानी जीव इससे विरुद्ध है अर्थात् न तो मैं ही किसी का घात करने वाला हूँ और न परके द्वारा मेरा ही घात होता है, ऐसा वह मानता है।
विशेषार्थ- मैं परजीवों को मारता हूँ और परजीवों के द्वारा मैं मारा जाता हूँ ऐसा जो अध्यवसाय भाव है वह निश्चय से अज्ञान है। ऐसा अज्ञानभाव जिसके है वह अज्ञानी होने से मिथ्यादृष्टि है।
__ जिनके आशय में ऐसा निश्चय हो गया है कि मैं परजीवों का घात करने वाला हँ और परजीव मेरा घात करनेवाले हैं, यही उनका अज्ञानभाव है क्योंकि इसके अभ्यन्तर में कर्तृत्वभाव का सद्भाव होने से ज्ञानभाव की विकृतावस्था रहती है। इसीसे आचार्यों ने इसे बन्ध का पात्र बताया है।।२४७।।
अब यह अध्यवसाय अज्ञान क्यों है, इसका उत्तर कहते हैं
आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । आउं ण हरेसि तुमं कह ते मरणं कयं तेसिं ।।२४८।।
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