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________________ २७४ समयसार कठिन था। ऐसे ही मोह के आवेग में आकर यह मानने लगते हैं कि परकी सहायता से हम जीवन-रक्षा कर रहे हैं। यदि अमुक व्यक्ति हमारी रक्षा न करते तो हमारा जीना ही कठिन था। यह सब मानना मिथ्याध्यवसाय है। परन्तु ज्ञानी जीव का विचार इससे विपरीत रहता है। वह ऐसा विचार करता है कि प्राणियों का जीवन उनके आयु:कर्म के आधीन है। परके जीवन में हम और हमारे जीवन में पर, केवल निमित्तकारण हैं, सो भी बाह्य उपकार की अपेक्षा से हैं। जैसे 'अन्नं वै प्राणा:', 'घृतं वै आयुः', 'अयं मे कुलदीपकः', 'सिंहो माणवकः' आदि उपचार से व्यवहार होता है वैसे ही यहाँ जानना चाहिये। यहाँ निमित्तकारण को गौणकर जीवन-मरण का मूल कारण जो आयुःकर्म का सद्भाव और असद्भाव है उसकी प्रधानता से कथन किया गया है। अज्ञानी जीव मूलकारण की ओर लक्ष्य न देकर केवल निमित्तकारण की ओर दृष्टि देते हुए जो कर्तृत्व का अध्यवसाय करते हैं उसका निषेध करना लक्ष्य है।।२५०।। अब यह अध्यवसायभाव अज्ञान क्यों है? इसीका समाधान करते हैं आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू । आउं च ण देसि तुमं कहं तए जीवियं कयं तेसिं ।।२५१।। आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू । आउं च ण दिति तुहं कहं णु ते जीवियं कयं तेहिं ।।२५२।। ___ (युग्मम्) अर्थ- आयुःकर्म के उदय से जीव जीता है, ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं और तुम पर की आयु को देते नहीं, फिर कैसे तुम्हारे द्वारा उन जीवों-पुरुषों का जीवन किया गया? आयुःकर्म के उदय से जीव का जीवन है, ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं और परजीव तुम्हारी आयु देते नहीं, तब उनके द्वारा तुम्हारा जीवन कैसे किया गया? विशेषार्थ- जीवों का जीवन अपने आयु:कर्म के उदय से ही होता है क्योंकि उसके अभाव में जीवन का होना असम्भव है और अन्य का आयु:कर्म अन्य के द्वारा नहीं दिया जा सकता, क्योंकि उसका बन्ध अपने ही परिणामों से किया जाता है। इसीसे किसी भी प्रकार से अन्य पुरुष के द्वारा अन्य पुरुष का जीवन नहीं हो सकता। अतएव जो यह अध्यवसाय है कि मैं किसी को जिवाता हूँ और किसी के द्वारा मैं जिवाया जाता हूँ, यह निश्चित ही अज्ञान है।।२५१।२५२।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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