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बन्धाधिकार
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के कारण हैं और न चित् अचित् वस्तु का घात भी बन्ध का निमित्त है, किन्तु रागादिकों के साथ उपयोग की जो एकभूमिता है वही निश्चय से जीवों के बन्ध का कारण है।
भावार्थ-यहाँ पर बन्ध का वास्तविक कारण आत्मा के अशुद्धभावरागादिकभावों को ही कहा है और जो निमित्तकारण हैं उन्हें गौण कर दिया है। यदि तत्त्व से देखा जावे तो यही आता है। अन्तरङ्ग में यदि मलिनता नहीं तो बाह्य में नानाप्रकार के परिणमन होते हुए भी आत्मा नहीं बँधती। जैसे अध्यापक शिष्य को अध्ययन कराते समय नानाप्रकार के अवाच्य शब्दों का प्रयोग करता है तथा नानाप्रकार के शारीदिक दण्ड आदि का भी प्रयोग करता है फिर भी उसे कोई अपराधी नहीं मानता, क्योंकि उसका अभिप्राय विरुद्ध नहीं है। इसी तरह मन-वचन-काय के व्यापारों में कषाय के विना बन्ध की कारणता नहीं है।।१६३।।
आगे यही बात व्यतिरेकदृष्टान्त द्वारा सिद्ध करते हैंजह पुण सो चेव णरो णेहे सव्वह्मि अवणिये संते । रेणुबहुलम्मि ठाणे करेदि सत्थेहिं वायामं ।।२४२।। छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ। सच्चित्ताचित्ताणं करेइ दव्वाणमुवघायं ।।२४३।। उवघायं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं । णिच्छयदो चिंतिज्जहु किं पच्चयगो ण रयबंधो ॥२४४।। जो सो अणेहभावो तह्मि णरे तेण तस्सऽरयबंधो । णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहि ।।२४५।। एवं सम्मादिट्ठी वर्सेतो बहुविहेसु जोगेसु । अकरंतो उवओगे रागाइ ण लिप्पइ रयेण ।।२४६।।
(पंचकम्) अर्थ- जिस प्रकार फिर वही मनुष्य जब तेलादिक सम्पूर्ण वस्तुओं का अपनयन कर देता है और नि:स्नेह होकर उसी रेणबहल प्रदेश में शस्त्रों के द्वारा व्यायामक्रिया करता है, तालवृक्ष, तथा वाँसों के भिड़े को छेदता है, भेदता है, तथा सचित्त-अचित्त पदार्थों का उपघात करता है। नाना प्रकार के कारणों द्वारा उपघात करनेवाले उस पुरुष के निश्चय से विचार करो, ऐसा कौन-सा कारण है कि जिससे
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