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________________ २७० समयसार उसके धूलिका बन्ध नहीं होता? तब यही निर्धार होता है कि बन्ध का कारण स्नेह का सम्बन्ध है। जिसके स्नेह हैं उसके बन्ध है और जिसके स्निग्धता की सत्ता नहीं है वह धूलि से नहीं बँधता। इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि जीव मन-वचन-कायरूप नानाप्रकार के योगों में स्थिर रह कर भी उपयोग में रागादिक नहीं करता है, इसीसे वह कर्मरूपी रज से लिप्त नहीं होता अर्थात् उसके बन्ध नहीं होता। विशेषार्थ- जैसे वही पुरुष जब सर्व स्नेह को शरीर से पृथक् कर देता है और तदनन्तर जो स्वभाव से ही रज की बहुलता से विशिष्ट है उसी भूमि में शस्त्रों द्वारा वही व्यायाम करता है और उन्हीं अनेक प्रकार के करणों द्वारा सचित्ताचित्त वस्तुओं का घात करता है फिर भी धूलि के साथ बन्ध को प्राप्त नहीं होता है क्योंकि बन्ध का, कारण जो स्नेहाभ्यङ्ग (तैलका मर्दन) था उसका उसके अभाव है। ऐसे ही सम्यग्दृष्टि जीव आत्मा में रागादिक नहीं करता हुआ स्वभाव से ही कर्मयोग्य पुद्गलों की बहुलता से भरे हुए लोक में मन-वचन-काय के द्वारा वही कर्म करता है और उन्हीं नाना प्रकार के करणों के द्वारा सचित्त-अचित्त वस्तुओं का घात करता है फिर भी ऐसा करता हुआ भी बन्ध के कारणभूत रागादिक परिणामों के अभाव से कर्मरूपी धूलि से नहीं बँधता है।।२४२।२४६।। यही बात श्री अमृतचन्द्रस्वामी कलशा द्वारा प्रकट करते हैं शार्दूलविक्रीडितछन्द लोकः कर्मततोऽस्तु सोऽस्तु च परिस्पन्दात्मकं कर्म तत् तान्यस्मिन् करणानि सन्तु चिदचिदव्यापादनं चास्तु तत् । रागादीनुपयोगभूमिमनयन् ज्ञानं भवन् केवलं बन्धं नैव कुतोऽप्युपेत्ययमहो सम्यग्दृगात्मा ध्रुवम्।।१६५।। अर्थ- कर्मों से व्याप्त लोक रहे, मन-वचन-काय के चलनरूप योग रहे, पूर्वोक्त करण भी रहे और वह सचित्ताचित्त वस्तुओं का व्याघात भी रहे, तो भी जो रागादिक को उपयोग की भूमि में नहीं ला रहा है, तथा मात्र ज्ञानरूप हो रहा है, ऐसा यह सम्यग्दृष्टि जीव निश्चय से किसी भी कारण से बन्ध को प्राप्त नहीं होता। अहो सम्यग्दृष्टि की अद्भूत महिमा देखो। भावार्थ- बन्ध का मूल कारण कषाय है, कार्मणवर्गणा से भरा हुआ लोक बन्ध का कारण नहीं है, मन-वचन-काय के व्यापार बन्ध के जनक नहीं हैं, करण भी बन्ध के कारण नहीं हैं और चित्-अचित् पदार्थों का घात भी बन्ध का कारण नहीं है। सम्यग्दृष्टि जीव एक ज्ञानरूप ही परिणमन करता है, उसे रागादिक से मलिन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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