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________________ २६८ समयसार उनके भी धलिबन्ध का प्रसङ्ग हो जावेगा। शस्त्रादि के द्वारा जो व्यायामकर्म है वह भी बन्ध का कारण नहीं है क्योंकि जिनके शरीर में स्नेह का अभ्यङ्ग नहीं है, उन पुरुषों के भी शस्त्रव्यायायकर्म से बन्ध की प्रसक्ति आवेगी। अनेक प्रकार के जो कारण हैं वे भी बन्ध के कारण नहीं हैं क्योंकि जिनके शरीर में स्नेह का अभ्यङ्ग नहीं है उन पुरुषों के भी उन कारणों के द्वारा बन्ध होने लगेगा। और सचित्त-अचित्त वस्तुओं का जो उपघात है वह भी बन्ध का कारण नहीं है क्योंकि जिनके शरीर में स्नेह का अभ्यङ्ग नहीं है उनके सचित्ताचित्त पदार्थों के घात होने पर बन्ध होने लगेगा। इसलिये न्याय के बल से यह आया कि उस पुरुष के शरीर में जो स्नेह का अभ्यङ्ग है वही बन्ध का कारण है। उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि अपने आत्मा में रागादिक को करता हुआ स्वभाव से ही कर्मयोग्य पुद्गलों के द्वारा भरे हुए लोक में काय, वचन और मन की क्रिया को करता है और अनेक प्रकार के कारणों के द्वारा वस्तुओं का घात करता हुआ कर्मरूपी धूलि से बन्धभाव को प्राप्त होता है। अब यहाँ प्रश्न होता है कि उस मिथ्यादृष्टि के बन्ध का कया कारण है? स्वभाव से ही कर्मयोग्य पुद्गलों से भरा हुआ जो यह लोक है, वह तो बन्ध का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि उस लोक में स्थित जो सिद्ध भगवान् हैं उनके भी बन्ध का प्रसङ्ग आवेगा। काय, वचन और मन का व्यापार भी बन्ध का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि यदि ऐसा माना जावे तो यथाख्यातसंयमी के भी काय, वचन और मन के व्यापार से बन्ध होने लगेगा। अनेक प्रकार के जो कारण हैं वे भी बन्ध के कारण नहीं है क्योंकि इनके सद्भाव में केवली भगवान् के भी बन्ध की प्रसक्ति हो जावेगी। और सचित्त तथा अचित्त वस्तुओं का घात भी बन्ध का हेतु नहीं है क्योंकि जो मुनि ई-समिति आदि में सावधान हैं उनके भी सचित्ताचित्त वस्तु का घात होने पर बन्ध होने लगेगा। इसलिये न्याय के बल से यह आया कि उपयोग में जो रागादिकों की एकता है वही बन्ध का कारण है।।२३७।२४१।। यही भाव कलशा में कहते हैं पृथ्वीछन्द न कर्मबहुलं जगन्न चलनात्मकं कर्म वा न नैककरणानि वा न चिदचिद्वधो बन्धकृत्। यदैक्यमुपयोगभूः समुपयाति रागादिभिः स एव किल केवलं भवति बन्धहेतुर्नृणाम्।। १६४।। अर्थ- न तो कर्म की प्रचुरता से व्याप्त जगत् ही बन्ध का कारण है, न परिस्पन्दात्मक कर्म अर्थात् योग बन्ध का कारण है, न अनेक प्रकार के करण बन्ध For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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