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बन्धाधिकारः
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आगे राग बन्ध का कारण है, यह दृष्टान्त द्वारा सिद्ध करते हुए गाथा कहते हैं
जह णाम कोवि पुरिसो णेहभत्तो दु रेणुबहुलम्म । ठाणम्मि ठाइदूण य करेइ सत्थेहिं वायामं । । २३७ ।। छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ। सच्चित्ताचित्ताणं करे दव्वाणमुवघायं ।। २३८।। उवघायं कुव्वंतस्स तस्स णाणविहेहिं करणेहिं । णिच्छयदो चिंतिज्ज हु किं पच्चयगो दु रयबंधो ।।२३९।। जो सो दु णेहभावो त िणरे तेण तस्स रयबंधो । णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं । । २४० ।। एवं मिच्छादिट्ठी वट्टंतो बहुविहासु रायाई उवओगे कुव्वंतो लिप्पइ
चिट्टासु ।
रयेण । । २४१ । ।
अर्थ- ‘नाम' शब्द सत्यार्थ में अव्यय है । जिस प्रकार कोई पुरुष अपने शरीर में तेल का मर्दन कर रेणुबहुल भूमि में स्थित होकर शस्त्रों के द्वारा व्यायाम करता है तथा ताड़वृक्ष, कदलीवृक्ष और बाँस के घनीभूत पिण्ड को छेदता है, भेदता है और सचित्त, अचित्त द्रव्यों का उपघात करता है । नानाप्रकार के शस्त्रों के द्वारा उपघात करनेवाले उस पुरुष के जो धूलि का बन्ध हो रहा है वह किस कारण से हो रहा है, यह निश्चय से विचार करने योग्य है । इसका उत्तर आचार्य देते हैं कि उस पुरुष में जो तेल का सम्बन्ध है उसी से उसके धूलिका बन्ध हो रहा है, यह निश्चय से जानने के योग्य है । उस पुरुष की काय आदि की चेष्टाओं व शस्त्रों की क्रिया आदि से धूलिका बन्ध नहीं हो रहा है। उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि बहुत प्रकार की चेष्टाओं में प्रवृत्त होता हुआ भी बन्ध को प्राप्त नहीं होता, किन्तु उपयोग में रागादि को करता हुआ कर्मरूपी रज से लिप्त होता है— बन्ध को प्राप्त होता है ।
विशेषार्थ - इस लोक में जैसे कोई पुरुष स्नेह का मर्दन कर स्वभाव से ही जिस प्रदेश में धूलि की प्रचुरता है वहाँ पर शस्त्रों के द्वारा व्यायाम करता है और अनेक प्रकार के करणों ( शस्त्रादि) द्वारा सचित्त तथा अचित्त वस्तुओं का घात करता हुआ धूलि से बन्धभाव को प्राप्त होता है। अब यहाँ पर बन्ध का क्या कारण है, यह विचारणीय है। स्वभाव से धूलि की प्रचुरता जिसमें हैं, ऐसी भूमि बन्ध का कारण नहीं है क्योंकि ऐसा मानने से जिनके शरीर में स्नेह का अभ्यङ्ग नहीं है।
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