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७. बन्धाधिकारः अब बन्ध प्रवेश करता है :
शार्दूलविक्रीडितछन्द रागोद्गारमहारसेन सकलं कृत्वा प्रमत्तं जगत्
क्रीडन्तं रसभारनिर्भरमहानाट्येन बन्धं धुनत् । आनन्दामृतनित्यभोजिसहजावस्थां स्फुटं नाटयद्
धीरोदारमनाकुलं निरुपधिज्ञानं समुन्मज्जति।।१६३।। __ अर्थ- रागद्वेषादि के उद्गार (तीव्रोदय) रूप महारस के द्वारा समस्त जगत् को प्रमत्तकर रस के समूह से परिपूर्ण महानाट्य के द्वारा क्रीड़ा करते हुए बन्धतत्त्व को जो दूर कर रहा है, आनन्दरूपी अमृत का जो निरन्तर उपभोग करता है, आत्मा की सहज-स्वाभाविक अवस्था को जो स्पष्टरूप से प्रकट कर रहा है, धीर है, उदार है, आकुलता रहित है तथा उपाधि रहित है ऐसा ज्ञान प्रकट होता है।
__ भावार्थ- संसार का कारण बन्ध है और बन्ध का कारण रागादिक की तीव्रता है, इस रागादिक की तीव्रतारूपी मदिरा के नशा से समस्त संसार मतवाला हो रहा है, संसार में बन्ध ही सब अपना रसपूर्ण महानाट्य दिखला रहा है। इस बन्ध से मुक्ति दिलानेवाला आत्मा का सहज ज्ञान है, उस सहज ज्ञान के प्रकट होने पर आत्मा की सहज-स्वाभाविक दशा अनुभव में आने लगती है तथा दुःखों को उत्पन्न करनेवाले जो विकारी भाव हैं उनसे निवृत्ति होने लगती है। अत: वह ज्ञान निरन्तर आनन्दरूपी अमृत का उपभोग कराने में तत्पर होता है। दर्शनमोहजन्य विकारभाव के निकल जाने से वह ज्ञान धीर, उदार तथा अनाकुल होता है तथा सब प्रकार की उपाधियों से रहित होता है। जिस प्रकार वायु का प्रबल वेग धूलि के समूह को दूर उड़ा देता है उसी प्रकार यह सहजज्ञान बन्ध को दूर उड़ा देता है। जहाँ बन्ध दूर हुआ वहाँ मोक्ष अनायास ही प्राप्त हो जाता है। अत: सहजज्ञान को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिये।।१६३।।
१. रागशब्द उपलक्षणं तेन द्वेषमोहादीनामपि ग्रहणं, तस्य उद्गार आधिक्यं स एव
महारस उन्मादकरसः तेन रागोद्गारमहारसेन।
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