SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्जराधिकार २६५ है। इस तरह संवर और निर्जरा के प्रभाव से ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षयकर वह स्वयं ही उस स्वाभाविक ज्ञानस्वरूप हो जाता हैं जो आदि, मध्य और अन्त से रहित है। आदि, मध्य और अन्त से रहित ज्ञान केवलज्ञान है। यही ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक ज्ञान है। ज्ञानी जीव इसी केवलज्ञानस्वरूप होकर लोकाकाश और अलोकाकाश के भेद से द्विविधरूपता को प्राप्त अनन्त आकाशरूपी रङ्गभूमि में प्रवेश कर अर्थात् लोकालोकगत ज्ञेयों को अपना विषय बनाकर परमानन्द में निमग्न रहता है। ___ यहाँ सम्यग्दृष्टि जीव के जो नवीन कर्मों के बन्ध का अभाव बतलाया है, वह उपशान्तमोह, क्षीणमोह आदि गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा है। चतर्थादि गुणस्थान में जो बन्ध होता है, वह मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी का अभाव हो जाने से अनन्त संसार का कारण नहीं, इसलिये उसकी विवक्षा नहीं की गई है। इस संसार में भ्रमण का मूल कारण मोहनीय कर्म है, उसके दो भेद हैं- एक दर्शनमोह और दूसरा चारित्रमोह। इसी मोह के सद्भाव को पाकर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, ये भी आत्मा के ज्ञान, दर्शन और वीर्य को घातते हैं। यद्यपि ज्ञानावरण कर्म के उदय में आत्मा के ज्ञान का उदय नहीं होता, अज्ञानभाव रहता है तथापि उससे आत्मा की कुछ भी मर्मभेदकरी हानि नहीं होती। किन्त ज्ञानावरण के क्षयोपशम से आत्मा के ज्ञानगुण का जो विकास हुआ है वह यदि दर्शनमोह के उदय से जन्य मिथ्यात्व का सहकार पा जावे तब एकादशाङ्ग का पाठी होकर भी मोक्षमार्ग से च्युत रहता है। यद्यपि वह तत्त्वार्थ का यथार्थ निरूपण करता है, मन्द कषाय के उदय से प्रबल से प्रबल उपसर्ग करनेवालों से द्वेष नहीं करता है, ज्ञानावरणादिकर्मों के क्षयोपशम से जो ज्ञान-दर्शन प्राप्त हुआ है उसका कुछ भी मद नहीं करता है, अन्तराय के क्षयोपशम से जो शक्ति का उदय हुआ है उसका भी कोई अभिमान नहीं करता, साता आदि पुण्यप्रकृतियों के उदय से जो सुभगादि रूप सामग्री का लाभ हुआ है उसमें कोई अहंकार नहीं करता तथा बड़े-बड़े राजा आदि गुणों के द्वारा आप पर मुग्ध हैं उसका भी कोई मद नहीं करता तथापि दर्शनमोह का उदय उसके अभिप्राय को ऐसा मलीमस करता रहता है कि मोक्षमार्ग में उसका प्रवेश नहीं हो पाता। अतएव मोक्षमार्ग की प्राप्ति के लिये दर्शनमोह के उदय से जन्य अभिप्राय की मलिनता का त्याग करना सर्वप्रथम कर्त्तव्य है।।१६२।। इस तरह निर्जरा रङ्गभूमि से बाहर निकल गई। इस प्रकार श्रीकुन्दकुन्दाचार्य द्वारा विरचित समयप्राभृत में निर्जरा का वर्णन करनेवाले छठवें अधिकार का प्रवचन पूर्ण हुआ।।६।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy