________________
२६४
समयसार
वात्सल्य नाम प्रेमभाव का है। सो जिनके मोक्षमार्ग का मुख्य साधनीभूत सम्यग्दर्शन हो गया उसके मार्ग में स्वभाव से ही प्रेम है। अत: मार्ग के अभाव में जो बन्ध होता है वह इसके नहीं होता।।२३५।।
आगे प्रभावनागुण का वर्णन करते हुए गाथा कहते हैंविज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा ।
सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो।।२३६।।
अर्थ- जो आत्मा विद्यारूपी रथपर चढ़कर मानरूपी रथ के मार्ग में भ्रमण करता है, वह जिन भगवान् के ज्ञान की प्रभावना करनेवाला सम्यग्दृष्टि जानने योग्य है।
विशेषार्थ-क्योंकि सम्यग्दृष्टिजीव, टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभाव से तन्मय है, इसीसे ज्ञान की सम्पूर्ण शक्ति के विकास द्वारा ज्ञान की प्रभावना का जनक है
अतएव उसे प्रभावना अङ्ग का धारी कहा है और इसीसे ज्ञान के अपकर्ष से हुआ बन्ध नहीं होता, किन्तु निर्जरा ही होती है।
बाह्य में प्रभावना जिनबिम्बपञ्चकल्याणक आदि सत्कार्यों से होती है और निश्चय-प्रभावना सम्यग्ज्ञान के पूर्ण विकास से आत्मा की जो वास्तविक दशा की प्राप्ति है वही है।।२३६।। आगे इन आठ गुणों के उपसंहार स्वरूप कलशा कहते हैं
मन्दाक्रान्ताछन्द रुन्धन् बन्धं नवमिति निजैः संगतोऽष्टाभिरङ्गः
प्राग्बद्धं तु क्षयमुपनयन् निर्जरोज्जृम्भणेन। सम्यग्दृष्टिः स्वयमतिरसादादिमध्यान्तमुक्तं
ज्ञानं भूत्वा नटति गगनाभोगरङ्गं विगाह्य।।१६२ ।। अर्थ-इस प्रकार जो अपने आठ अङ्गों से सहित होता हुआ नवीन बन्ध को रोक रहा है और निर्जरा की वृद्धि से जो पूर्वबद्ध कर्मों के क्षय को प्राप्त करा रहा है, ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव स्वयं स्वाभाविकरूप से आदि, मध्य और अन्त से रहित ज्ञानरूप होकर आकाश के विस्ताररूप रङ्गस्थल में प्रवेश कर नृत्य कर रहा है।
भावार्थ-सम्यग्दृष्टि जीव नि:शङ्कितत्व आदि आठ अङ्गों के द्वारा आत्मा में विशेष निर्मलता को प्रापत होता है। उस निर्मलता के कारण उसके नवीन बन्ध रुक जाता है और गुणश्रेणी निर्जरा की प्राप्ति से पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करता जाता
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org