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________________ निर्जराधिकार २६३ में अनुरागी होता है तब अन्यत्र से उसका उपगूहन स्वयमेव हो जाता है, इसी से उसमें निर्मलता आती है और उस निर्मलता के कारण ही शक्ति की दुर्बलता से होनेवाला बन्ध नहीं होता हैं ।। २३३ ।। आगे स्थितीकरणगुण का वर्णन करते हुए गाथा कहते हैं उम्मग्गं गच्छंतं सगं पि मग्गे ठवेदि जो चेदा 1 सो ठिदिकरणाजुत्तो सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ।। २३४ || अर्थ- जो जीव उन्मार्ग में चलते हुए आत्मा को भी मार्ग में स्थापित करता है वह ज्ञानी स्थितीकरण अङ्ग से सहित सम्यग्दृष्टि जानने योग्य है। विशेषार्थ- क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव, टङ्कोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभाव से तन्मय होने के कारण मार्ग से च्युत हुए अपने आप को मार्ग में ही स्थित करता है । इसलिये वह स्थितीकरण अङ्ग का धारक होता है और इसीसे इसके मार्गच्यवनकृत बन्ध नहीं होता है अर्थात् न च्युत होता है और अतएव न बन्ध होता है, किन्तु निर्जरा ही होती है। यदि अपना आत्मा सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्रात्मक मोक्षमार्ग से च्युत हो जावे तो उसे फिर उसी में स्थित करना, इसी का नाम स्थितीकरण अङ्ग है। सम्यग्दृष्टि जीव अङ्ग का धारक होता है, इसीसे इसके मार्ग से छूटने रूप बन्ध नहीं होता, किन्तु उदयागत कर्म के स्वयमेव झड़ जाने से निर्जरा ही होती है । । २३४ । । आगे वात्सल्यगुण का वर्णन करते हुए गाथा कहते हैं जो कुणदि वच्छलत्तं तिन्हं साहूण मोक्खमग्गह्नि । सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो । । २३५ ।। अर्थ- जो निश्चय से मोक्षमार्ग के साधक सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र में वात्सल्यभाव करता है अथवा व्यवहार से सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र के आधारभूत आचार्य, उपाध्याय और साधु महात्मा में वात्सल्यभाव को करता है, वह वात्सल्य अङ्ग का धारी सम्यग्दृष्टि जानने के योग्य हैं। विशेषार्थ-क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव से तन्मय रहता है। इसलिये वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को अपने आप से अभिन्न देखता है। इसी से मार्गवत्सल कहलाता है और इसीसे इसके मार्ग के अनुपलम्भ प्रयुक्त बन्ध नहीं होता है, किन्तु निर्जरा ही होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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