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________________ २६२ समयसार आगे अमूढदृष्टिगुण का वर्णन करते हुए गाथा कहते हैंजो हवइ असम्मूढो चेदा सद्दिट्ठि सव्वभावेसु। सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेयव्यो ।।२३२।। अर्थ- जो जीव सम्पूर्ण पदार्थों में असंमूढ रहता है अर्थात् मूढता नहीं करता है। किन्तु सदृष्टि रहता है अर्थात् समीचीन दृष्टि से उन पदार्थों को जानता है। वह निश्चय से अमूढदृष्टिअङ्ग का धारक सम्यग्दृष्टि होता है। विशेषार्थ- जिस कारण सम्यग्दृष्टि जीव टङ्कोत्कीर्ण ज्ञायकभाव से तन्मय होने के कारण निखिल पदार्थों में मोहाभाव होने से अमूढदृष्टि रहता है अर्थात् यथार्थ दृष्टि का धारक होता है। इस कारण इस अमूढदृष्टि के द्वारा किया हुआ बन्ध नहीं है किन्तु निर्जरा ही है। सम्यग्ज्ञानी जीव सम्पूर्ण पदार्थों को यथार्थ जानता है। अत: उसके विपरीत अभिप्राय नष्ट हो जाता। विपरीत अभिप्राय के नष्ट हो जाने से मिथ्यात्व के साथ होनेवाला रागद्वेष नहीं होता है। इसीलिये उसके अनन्त संसार का बन्ध नहीं होता है। चारित्र मोह के उदय से बिना अभिप्राय के जो रागद्वेष होता है वह संसार की अल्पस्थिति के लिये होता हैं तथा उत्तम गति का ही कारण होता है। यही कारण है कि सम्यग्दृष्टि जीव के तिर्यश्च और नरक आयु का बन्ध नहीं होता है।।२३२।। आगे उपगृहनगुण का वर्णन करते हुए गाथा कहते हैंजो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगृहणगो दू सव्वधम्माणं। सो उवगृहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो।।२३३।। ___ अर्थ- जो सिद्ध भक्ति से युक्त है और सम्पूर्ण धर्मों का गोपन करनेवाला है। वह जीव उपगूहन अङ्ग का धारी सम्यग्दृष्टि जानने योग्य है। विशेषार्थ- सम्यग्दृष्टि जीव के टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव का सद्भाव है। इसीसे उसके सम्पूर्ण आत्म-शक्तियों का विकास हो गया है। यही कारण है कि इस सम्यग्दृष्टि जीव के शक्ति की दुर्बलता प्रयुक्त बन्ध नहीं होता है, किन्तु निर्जरा ही होती है। यहाँ पर सिद्ध भगवान् में जब सम्यग्दृष्टि अपने उपयोग को लगाता है तब अन्य पदार्थों में उपयोग के न जाने से स्वयमेव उसका उपयोग निर्मल हो जाता है, इससे उसके विकास वृद्धि होती है और इसीसे इस गुण को उपबृंहण कहते हैं तथा उपगूहन नाम छिपाने का है सो जब अपना उपयोग सिद्ध भगवान् के गुणों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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