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निर्जराधिकार
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अर्थ-जो आत्मा कर्मों के फलों में तथा समस्त धर्मों में कांक्षा नहीं करता है, वह नि:काङ्क्ष गुण का धारक सम्यग्दृष्टि जानने योग्य है।
विशेषार्थ- जो पञ्चेन्द्रियों के विषयसुख स्वरूप कर्मफलों तथा समस्त वस्तुधर्मों की अभिलाषा को नहीं करता है, ऐसा वह सम्यग्दृष्टि जीव ही नि:कांक्षित अङ्ग का धारी होता है। __जिस कारण सम्यग्दृष्टि जीव टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव स्वभाव वाला है, इसी स्वभाव के बल से उस सम्यग्दृष्टि जीव के सम्पूर्ण कर्मफलों में और सम्पूर्ण वस्तुधर्मों में आकांक्षा का अभाव है। अतएव आकांक्षाकृत बन्ध उसके नहीं है, प्रत्युत निर्जरा ही होती है।
साताकर्म के उदय में रति के सम्बन्ध से हर्ष होता है, इसीसे यह प्राणी साता के उदय में सुपुत्र, कलत्रादि अनुकूल सामग्री के उदय में रतिकर्म के सम्बन्ध से अपने को सुखी मानता है और निरन्तर इस भावना को भाता है कि सम्बन्ध इसी रूप से सदैव बना रहे, विघट न जावे। और जब असाता का उदय आता है तब उसके साथ ही अरति का उदय रहने से विषाद मानता है अर्थात् असाता के उदय में अनिष्ट पत्र, कलत्रादिक प्रतिकूल सामग्री के सद्भाव में अरतिकर्म के उदय से अपने को दुखी मानता है और निरन्तर यही भावना रखता है कि कब इन अनिष्ट पदार्थों का सम्बन्ध मिट जावे? परन्तु जिस जीव के सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है वह इनके उदय में हर्षविषाद नहीं करता, इन्हें कर्मकृत जान इनकी अभिलाषा नहीं करता, इसीसे उसके वाञ्छाकृत बन्ध भी नहीं होता।।२३०।।
आगे निर्विचिकित्सागुण का वर्णन करते हुए गाथा कहते हैं
जो ण करेदि जुगुप्पं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं ।
सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो।।२३१।।
अर्थ- जो आत्मा सम्पूर्ण वस्तुधर्मों में ग्लानि को नहीं करता है, वह निश्चयकर विचिकित्सा ग्लानिदोष से रहित सम्यग्दृष्टि जानने के योग्य है।
विशेषार्थ- जिस कारण सम्यग्दृष्टि जीव के टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभाव से तन्मयपना है उसीसे उसके सम्पूर्ण वस्तुधर्मों में जुगुप्सा (ग्लानि) का अभाव होने से निर्जुगुप्सा अङ्ग है। इसीलिये इस जीव के ग्लानि से किया हुआ बन्ध नहीं होता, किन्तु निर्जरा ही होती है। जब जुगुप्सा का उदय आता है तब मिथ्यादृष्टि जीव अपवित्र पदार्थों को देखकर ग्लानि करता है और सम्यग्ज्ञानी जीव वस्तुस्वरूप का वेत्ता होने के कारण समदर्शी होता हुआ ग्लानि से रहित रहता है।।२३१।।
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