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________________ rxvi समयसार इसलिये उन्हें सीधे पदगल के कह दिये हैं। इसी तरह गुणस्थान तथा मार्गणा आदि के विकल्प जीव के स्वभाव नहीं है, अत: निश्चयनय उन्हें स्वीकार नहीं करता। इन सबको आत्मा के कहना व्यवहारनय का विषय है। निश्चयनय स्वभाव को विषय करता है, विभाव को नहीं। जो स्वमें स्वके निमित्त से होता है यह स्वभाव है, जैसे जीव के ज्ञानादि और जो स्वमें पर के निमित्त से होते हैं वे विभाव हैं, जैसे जीव में क्रोधादि। ये विभाव चूँकि आत्मा में ही परके निमित्त से होते हैं, इसलिये इन्हें कथंचित् आत्मा के स्वीकृत करने के लिये परवर्ती आचार्यों ने निश्चयनय में शुद्ध और अशुद्ध निश्चय का विकल्प स्वीकार किया है। परन्तु कुन्दकुन्द महाराज विभाव को आत्मा का मानना स्वीकृत नहीं करते-वे उसे व्यवहारनय का ही विषय मानते हैं। निश्चय और व्यवहारनय में भूतार्थग्राही होने से निश्चयनय को भूतार्थ और अभूतार्थग्राही होने से व्यहारनय को अभूतार्थ कहा है। यहाँ व्यवहारनय की अभूतार्थता निश्चयनय की अपेक्षा है। स्वरूप और स्वप्रयोजन के अपेक्षा नहीं। उसे सर्वथा अभूतार्थ मानने में बड़ी आपत्ति दिखती है। श्रीअमृतचन्द्रस्वामी ने ४६वीं गाथा की टीका में लिखा है____ 'व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव। तमन्तरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात् त्रसस्थावराणां भस्मन इव नि:शंकमुपमर्दनेन हिंसाऽभावाद् भवत्येव बन्धस्याभावः। तथा रक्तो द्विष्टो विमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभावः।' यही भाव तात्पर्यवृत्ति में जयसेनाचार्य ने भी दिखलाया है 'यद्यप्ययं व्यवहारनयो बहिर्द्रव्यालंबनत्वेनाभूतार्थस्तथापि रागादिबहिर्द्रव्यालंबनरहितविशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावस्वावलंबनसहितस्य परमार्थस्य प्रतिपादकत्वाद् दर्शयितुमुचितो भवति। यदा पुनर्व्यवहारनयो न भवति तदा शुद्धनिश्चयनयेन त्रसस्थावरजीवा न श्रवन्तीति मत्वा नि:शंकोपमर्दनं कुर्वन्ति जनाः। ततश्च पुण्यरूपधर्माभावे इत्येकं दूषणं, तथैव शुद्धनयेन रागद्वेषमोहरहित: पूर्वमेव मुक्तो जीवस्तिष्ठतीति मत्वा मोक्षार्थमनुष्ठानं कोऽपि न करोति ततश्च मोक्षाभाव इति द्वितीयं च दूषणम्। तस्माद्व्यवहारनयव्याख्यानमुचितं भवतीत्यभिप्रायः।' इन अवतरणों का भाव यह है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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