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________________ प्रस्तावना xxvii यद्यपि व्यवहारनय अभूतार्थ है तो भी जिस प्रकार म्लेच्छों को समझाने के लिए म्लेच्छ भाषा का अंगीकार करना उचित है उसी प्रकार व्यवहारी जीवों को परमार्थ का प्रतिपादक होने से तीर्थ की प्रवृत्ति के निमित्त अपरमार्थ होने पर भी व्यवहारनय का दिखलाना न्यायसंगत है । अर्थात् व्यवहारनय सर्वथा असत्य नहीं है । अत: उसके आलम्बन से पदार्थ का प्रतिपादन करना उचित है । अन्यथा व्यवहार के बिना परमार्थनय से जीव शरीर से सर्वथा भिन्न दिखाया गया है, इस दशा में जिस प्रकार भस्म का उपमर्दन करने से हिंसा नहीं होती उसी प्रकार त्रस - स्थावर जीवों का निःशङ्क उपमर्दन करने से हिंसा नहीं होगी और हिंसा के न होने से बन्ध का अभाव हो जायेगा, बन्ध के अभाव से संसार का अभाव हो जायेगा। इसके अतिरिक्त रागी, द्वेषी और मोही जीव बन्ध को प्राप्त होता है अतः उसे ऐसा उपदेश देना चाहिए कि जिससे वह राग, द्वेष, मोह से छूट जाये, यह जो आचार्यों ने मोक्ष का उपाय बताया है वह व्यर्थ हो जावेगा, क्योंकि परमार्थ से जीव राग, द्वेष, मोह से भिन्न ही दिखाया जाता है। जब भिन्न है तब मोक्ष का उपाय स्वीकार करना असंगत होगा और इस तरह मोक्षका भी अभाव हो जायेगा । नय परार्थश्रुतज्ञान के भेद हैं। परार्थ का तात्पर्य यह है जिससे दूसरे की अज्ञाननिवृत्ति हो। इससे सिद्ध होता है कि नयों का प्रयोग पात्रभेद की अपेक्षा रखता है। एक ही नयसे सब पात्रों का कल्याण नहीं हो सकता। कुन्दकुन्दस्वामी ने स्वयं भी बारहवीं गाथा में इसका विभाग किया है कि शुद्धनय किसके लिए और अशुद्धनय किसके लिए आवश्यक है। शुद्धनय से तात्पर्य निश्चयनय का और अशुद्धनय से तात्पर्य व्यवहारनय का लिया गया है। गाथा इस प्रकार है सुद्धा सुद्धादेसो णायव्वो परमभावदरिसीहिं । ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे द्विदा भावे ।। १२ ।। अर्थात् जो परम भाव को देखनेवाले हैं उनके द्वारा शुद्धतत्त्व का कथन करनेवाला शुद्धनय जानने के योग्य है और जो अपरम भाव में स्थित हैं उनके लिए व्यवहारनय का उपदेश कार्यकारी है । नयों के विसंवाद से मुक्त होने के लिए कहा गया हैजड़ जिणमअं पवज्जह तो मा ववहारणिच्छए मुयह। एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण पुण तच्चं । । अर्थात् यदि जिनेन्द्र भगवान् के मत की प्रवृत्ति चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों ही नयों को मत त्यागो, क्योंकि यदि व्यवहारनय को त्याग दोगे, तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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