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________________ प्रस्तावना rry के अनुसार दोनों मान्यताएँ ठीक हैं। पुण्य और पाप के विषय में अधिक भ्रान्ति होती है, अत: कुन्दकुन्दस्वामी ने उस भ्रान्ति को दूर करने के लिये अलग से उनका वर्णन करना उचित समझा, पर उमास्वामी ने उन्हें आस्रव का ही एक विशेष रूप समझकर उनका स्वतन्त्र वर्णन करना ठीक नहीं समझा। उमास्वामी के द्वारा स्वीकृत क्रमका समर्थन करते हुए पूज्यपाद और अकलंक स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि एवं राजवार्तिक में कहा है कि जीवतत्त्व सब तत्त्वों में प्रमुख है अत: उसका पहले कथन किया है। उसके बाद जीव के विरोधी अजीवतत्त्व का वर्णन किया है। जीव और अजीव के संयोग से जीव की संसारदशा होती है। उसके कारण आस्रव और बन्ध हैं। मोक्ष उपादेय तत्त्व है और उसकी प्राप्ति संवर और निर्जरापूर्वक होती है, अत: बन्ध के बाद संवर और निर्जरा का कथन है। अन्त में प्राप्त होने के कारण सबसे अन्त में मोक्षतत्त्व का कथन है। इन पदार्थों का विशद वर्णन करने के लिए कुन्दकुन्दमहाराज ने समयप्राभृत को निम्नलिखित दश अधिकारों में विभाजित किया है- १ पूर्वरङ्ग, २ जीवाजीवाधिकार, ३ कर्तृकर्माधिकार, ४ पुण्य-पापाधिकार, ५ आस्रवाधिकार, ६ संवराधिकार, ७ निर्जराधिकार, ८ बंधाधिकार, ९ मोक्षाधिकार और १० सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार। नयों का सामञ्जस्य बैठाने के लिये अमृतचन्द्रस्वामी ने पीछे से स्याद्वादाधिकार नाम का एक स्वतन्त्र अधिकार और जोड़ा है। अमृताख्याति टीका के अनुसार समग्र ग्रन्थ ४१५ गाथाओं में समाप्त हुआ है। तात्पर्यवृत्ति के अनुसार कुछ गाथाएँ अधिक है। कुन्दकुन्दाचार्य सम्मत नयव्यवस्था कुन्दकुन्दस्वामी ने निश्चयनय और व्यवहारनय के भेद से सिर्फ दो नय स्वीकृत किये हैं। वस्तु के एक अभिन्न और स्वाश्रित-परनिरपेक्ष परिणमन को जाननेवाला निश्चयनय है और अनेक-भेदरूप तथा पराश्रित-परसापेक्ष परिणमन को जाननेवाला व्यवहानय है। यद्यपि अन्य आचार्यों ने निश्चयनय के शुद्ध निश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय इस प्रकार दो भेद किये हैं और व्यवहारनय के सद्भूत, असद्भूत, उपचरित, अनुपचरित आदि के भेद से अनेक भेद स्वीकृत किये हैं। परन्तु कुन्दकुन्दस्वामी ने इन भेदों के चक्र में न पड़कर सिर्फ उपर्युक्त दो भेद स्वीकृत किये हैं। अपने गुण-पर्यायों से अभिन्न आत्मा की परिणति के कथन को उन्होंने निश्चयनय का विषय माना हैं और कर्म के निमित्त से होनेवाली आत्मा की परिणति को व्यवहारनय का विषय माना है। निश्चयनय आत्मा में काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारों को स्वीकृत नहीं करता। वे पुद्गलद्रव्य के निमित्त से होते हैं, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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