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________________ rriv समयसार समय के भेद कुन्दकुन्दस्वामी ने समय अर्थात् आत्मा के ‘स्वसमय और 'परसमय' की अपेक्षा दो भेद किये हैं। जो जीव अपने दर्शन, ज्ञान और चारित्र स्वभाव में स्थित हैं वह स्व-समय है और जो पुद्गलमयकर्मप्रदेशों में स्थित है वह परसमय है। पुद्गल कर्मप्रदेशों में स्थित होने का अर्थ उन्हें आत्मस्वरूप मानना है। जब तक यह जीव परमाणुमात्र भी पुद्गलद्रव्य को आत्मस्वरूप मानता रहता है तब तक वह परसमय ही कहलाता है। संसार के समस्त प्राणी इन्हीं दो भेदों में विभक्त हैं। समयप्राभृत की वस्तु-व्यवस्था एवं वर्णनीय पदार्थ समयसार में कुन्दकुन्दस्वामी ने जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इन पदार्थों को वर्णनीय पदार्थ माना है। इन्हीं को यथार्थरूप से जानना सम्यग्दर्शन कहा है। यथा भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्ण पावं च। आसव संवर णिज्जर बंधो मोक्खो य सम्पत्तं।। अर्थात भतार्थनय से जाने गये जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष सम्यक्त्व हैं। यहाँ कारण में कार्य का उपचार कर सम्यक्त्व का वर्णन किया गया है। अर्थात् जीवाजीवादि पदार्थ सम्यक्त्व के कारण हैं और सम्यक्त्व कार्य है। इन्हीं नौ पदार्थों का विशद वर्णन इस ग्रन्थ में किया गया है। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वामी ने इन नौ पदार्थों से पुण्य और पाप को आस्रव में गतार्थ कर सात ही तत्त्व माने हैं तथा उनके क्रमको भी परिवर्तित कर दिया है। जैसे 'जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्' अर्थात् जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। इनका यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' ___ जीव और अजीव तत्त्व का क्रम कुन्दकुन्द और उमास्वामी की मान्यता के अनुसार एक-सा है। परन्तु आस्रव के बाद कुन्दकुन्दस्वामी ने उसके विरोधी संवर का पाठ रखा है और उमास्वामी ने आस्रव के बाद होने के कारण उसके बाद बन्ध का पाठ रखा है। संवरपूर्वक ही निर्जरा कार्य-कारिणी होती है, इस दृष्टि से कुन्दकुन्दस्वामी ने संवर के बाद निर्जरा का पाठ रखा है। उमास्वामी ने भी संवर और निर्जरा का यही क्रम स्वीकृत किया है। कुन्दकुन्द ने निर्जरा के बाद बन्ध और उसके बाद बन्ध के विरोधी मोक्षतत्त्व का पाठ रखा है। अपनी-अपनी विवक्षाओं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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