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________________ प्रस्तावना xxiii कुन्दकुन्दस्वामी के समस्त ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। अतः उनका परिचय अनावश्यक मालूम होता है । समयसार या समयप्राभृत पाठकों के हाथ में हैं अतः उसका परिचय देना आवश्यक जान पड़ता है। समयप्राभृत (समयसार) नामकी सार्थकता 'बोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवली भणियं' इस प्रतिज्ञावाक्य के 'मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्तेर्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूते:' इस कलशा के तृतीय श्लोक में तथा 'जोसमयपाहुडमिमं पडिहूणं अत्थतच्चदो णाउं' इस समारोपात्मक अन्तिम गाथा के अनुसार प्रकृत ग्रन्थ का नाम 'समयप्राभृत' है, ‘समयसार' नहीं। किन्तु पीछे चलकर नियमसार और प्रवचनसार के अनुसार इसका नाम भी 'समयसार' प्रचलित हो गया । समयसार नाम प्रचलित हो गया । समयसार नाम प्रचलित होने में अमृतचन्द्रस्वामी द्वारा रचित आत्मख्याति टीका के 'नमः समयसाराय' इस मङ्गलश्लोक में समयसार शब्द का प्रयोग भी एक कारण है । अमृतचन्द्रस्वामी ने समय का अर्थ जीव किया है— 'टङ्कोत्कीर्णचित्स्वभावो जीवो नाम पदार्थः स समयः। समयत एकत्वे युगपज्जानाति गच्छति चेति निरुक्तेः ' अर्थात् टङ्कोत्कीर्ण चित्स्वभाववाला जो जीव नाम का पदार्थ है वह समय कहलाता है। जो एक साथ समस्त पदार्थों को जाने वह समय है ऐसी समय - शब्द की निरुक्ति है। जयसेनाचार्य ने भी 'सम्यग् अयः बोधो यस्य भवति स समयः आत्मा अथवा समं एक भावेनायनं गमनं समय:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार समय का अर्थ आत्मा किया है। इन्हीं जयसेनाचार्य ने 'प्राभृत' का व्याख्यान करते हुए लिखा- 'प्राभृतं सारं सार; शुद्धावस्था, समयस्य आत्मनः प्राभृतं समयप्राभृतं, अथवा समय एव प्राभृतं समयप्राभृतम्' । अर्थात् प्राभृत का अर्थ सार है, सार शुद्ध अवस्था को कहते हैं, अतः आत्मा की शुद्ध अवस्था का नाम समयप्राभृत है। संस्कृत कोषों में प्राभृत का एक अर्थ उपहार या भेंट भी बतलाया गया है, आत्मा की जो भेंट है वह समयप्राभृत है। अथवा 'सम् - एकीभावेन स्वगुणपर्यायान् अयते गच्छति' अर्थात् जो अपने गुण और पर्यायों के साथ एकीभाव को प्राप्त हो वह समय है । इस निरुक्ति के अनुसार समय का अर्थ समस्त पदार्थ होता है। उनमें प्राभृत अर्थात् सारभूत पदार्थ जीवपदार्थ हैं । प्राभृत का एक अर्थ शास्त्र भी होता है, अतः समयप्राभृत का अर्थ आत्मा का शास्त्र है। 'प्रकर्षेण आ समन्तात् भृतम् इति प्राभृतम्' अर्थात् जो उत्कृष्टता के साथ सब ओर से भरा हुआ हो- जिसमें पदार्थ का पूर्वापरविरोध रहित साङ्गोपाङ्ग वर्णन हो उसे प्राभृत कहते हैं । इस ग्रन्थ में समय अर्थात् आत्मा अथवा समस्त पदार्थों – नव पदार्थों का साङ्गोपाङ्ग वर्णन है इसलिये यह समयप्राभृत है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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