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________________ rrii समयसार से जानने की प्रेरणा करता हुआ कुन्दकुन्दस्वामी के समय-निर्धारण के विषय में मात्र दो मान्यताओं का उल्लेख कर रहा हूँ। एक मान्यता प्रो० हवोल द्वारा संपादित नन्दिसंघ की पट्टावलियों के आधार पर यह है कि कुन्दकुन्द विक्रम की पहली शताब्दी के विद्वान् थे। वि० सं० ४९ में वे आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए, ४४ वर्ष की अवस्था में उन्हें आचार्यपद मिला, ५१ वर्ष १० महीने तक वे उस पदपर प्रतिष्ठित रहे और उनकी कुल आयु ९५ वर्ष १० माह १५ दिन की थी। डॉ० ए० चक्रवर्ती ने पञ्चास्तिकाय की प्रस्तावना में अपना यही अभिप्राय प्रकट किया है और दूसरी मान्यता यह है कि वे विक्रम की तीसरी शताब्दी के प्रारम्भ के विद्वान् हैं, जिसका समर्थन जुगलकिशोरजी मुख्तार, डॉ० ए० एन उपाध्ये, नाथूरामजी प्रेमी तथा पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री आदि इतिहासज्ञ विद्वान् करते आये हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थ और उनकी महत्ता दिगम्बर जैन ग्रन्थों में कुन्दकुन्द द्वारा रचित ग्रन्थ अपना अलग प्रभाव रखते हैं। उनकी वर्णन-शैली ही इस प्रकार है कि पाठक उससे वस्तुस्वरूप का अनुगम बड़ी सरलता से प्राप्त कर लेता है। निम्नांकित ग्रन्थ कुन्दकुन्दस्वामी के द्वारा रचित निर्विवाद रूप से माने जाते हैं तथा जैन समाज में उनका सर्वोपरि मान है १ नियमसार, २ पञ्चास्तिकाय, ३ प्रवचनसार, ४ समयसार (समयप्राभृत), ५ बारस-अणुवेक्खा , ६ दंसणपाहुण, ७ चारित्रपाहुड, ८ सुत्तपाहुड, ९ बोधपाहुड, १० भावपाहुड, ११ मोक्खपाहुड, १२ सीलपाहुड, १३ लिंगपाहुड, १४ दसभत्तिसंगहो। __ इनके सिवाय रयणसार नामका ग्रन्थ भी कुन्दकुन्दस्वामी के द्वारा रचित प्रसिद्ध है। परन्तु उसके अनेक पाठभेद देखकर विचारक विद्वानों का मत है कि यह कुन्दकुन्द के द्वारा रचित नहीं है अथवा इसके अन्दर अन्य लोगों की गाथाएँ भी सम्मिलित हो गई हैं। इन्द्रनन्दी के श्रुतावतार के अनुसार षट्खण्डागम के आद्य भागपर कुन्दकुन्दस्वामी के द्वारा रचित परिकर्मग्रन्थ का उल्लेख मिलता है। इस ग्रन्थ का उल्लेख षट्खण्डागम के विशिष्ट व्याख्याकार आचार्य वीरसेन ने अपनी टीका में कई जगह किया है। इससे पता चलता है कि उनके समय तो वह उपलब्ध रहा, परन्तु आजकल उसकी उपलब्धि नहीं है। शास्त्रभण्डारों-खासकर दक्षिण के शास्त्रभण्डारों में इसकी खोज की जानी चाहिये। मूलाचार भी कुन्दकुन्दस्वामी के द्वारा रचित माना जाने लगा है क्योंकि उसकी अन्तिम पुष्पिका में ('इति मूलाचारविवृत्तौ द्वादशोऽध्यायः। कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतमूलचाराख्यविवृत्तिः) कृतिरियं वसुनन्दिनः श्रमणस्य' यह उल्लेख पाया जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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