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________________ प्रस्तावना xxi और चतुर्दश पूर्व का विपुल विस्तार उन्हीं से संभव था। इसका समर्थन समयप्राभृत के पूर्वोक्त प्रतिज्ञावाक्य ‘वंदितु सव्वसिद्धे–' से भी होता है, जिसमें उन्होंने कहा है कि मैं श्रुतकेवली के द्वारा प्रतिपादित समयप्राभृत को कहूँगा। श्रवणवेलगोला के अनेक शिलालेखों में यह उल्लेख मिलता है कि अपने शिष्य चन्द्रगुप्त के साथ भद्रबाहु वहाँ पधारे और वहीं एक गुफा में उनका स्वर्गवास हुआ। इस घटना को आज ऐतिहासिक तथ्य के रूप में स्वीकृत किया जा चुका है। ___बोधपाहुड के संस्कृत-टीकाकार श्रीश्रुतसागरसूरिने- 'भद्रबाहुशिष्येण अर्हबलिगुप्तिगुप्तापरनामद्वयेन विसाखाचार्यनाम्ना दशपूर्वधारिणामेकादशानामाचार्याणां मध्ये प्रथमेन ज्ञातम्' इन पक्तियों द्वारा कहा है कि यहाँ भद्रबाहु के शिष्य से विशाखाचार्य का ग्रहण है। इन विशाखाचार्य के अर्हबलि और गुप्तिगुप्त ये दो नाम और भी हैं तथा ये दशपर्व के धारक ग्यारह आचार्यों के मध्य प्रथम आचार्य थे। वही श्रुतसागरसूरि ६२वी गाथा की टीका में भद्रबाह को ‘पञ्चानां श्रुतकेवलिनां मध्येऽन्त्यो भद्रबाहः' इन शब्दों द्वारा पाँच श्रुतकेवलियों में अन्तिम श्रुतकेवली प्रकट करते हैं। अब विचारणीय बात यह रहती है कि यदि कुन्दकुन्द को अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु का साक्षात् शिष्य माना जाता है तो वे विक्रम शताब्दी से ३०० वर्ष पूर्व ठहरते हैं और उस समय जब कि ग्यारह अंग तथा चौदह पूर्वो के जानकार आचार्यों की परम्परा विद्यामान थी, तब उनके रहते कुन्दकुन्दस्वामी की इतनी प्रतिष्ठा कैसे संभव हो सकती है और कैसे उनका अन्वय चल सकता है? इस स्थिति में कुन्दकुन्द को उनका परम्पराशिष्य ही माना जा सकता है, साक्षात् नहीं। श्रुतकेवली भद्रबाहु के द्वारा उपदिष्ट तत्त्व उन्हें गुरुपरम्परा से प्राप्त रहा होगा, उसी के आधार पर उन्होंने अपने आप को भद्रबाहु का शिष्य घोषित किया है। भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवली थे। अत: उनके द्वारा उपदिष्ट तत्त्व को उनके शिष्य विशाखाचार्य ने जाना। उसकी परम्परा आगे चलती रही। गमकगुरु का अर्थ श्रुतसागरजी ने उपाध्याय किया है, सो विशाखाचार्य के लिये यह विशेषण उचित ही है। कुन्दकुन्द का समय कुन्दकुन्दस्वामी के समय-निर्धारणपर प्रवचनसार की प्रस्तावना में डा० ए० एन० उपाध्ये ने, समन्तभद्र की प्रस्तावना में जुगलकिशोरजी मुख्तारने, पञ्चास्तिकाय की प्रस्तावना में डा० ए० चक्रवर्ती ने तथा कुन्दकुन्दप्राभृतसंग्रह की प्रस्तावना में पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ने विस्तार से चर्चा की है। लेख-विस्तार के भय से मैं उन सब चर्चाओं के अवतरण नहीं देना चाहता। जिज्ञासु पाठकों को तत् तत् ग्रन्थों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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