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________________ समयसार कुन्दकुन्द का जन्मस्थान इन्द्रनन्दी आचार्य ने पद्मनन्दी को कुण्डकुन्दपुर का बतलाया है। इसीलिये श्रवणवेलगोला के कितने ही शिलालेखों में उनका कोण्डकुन्द नाम लिखा है। श्री पी० वी० देसाई ने 'जैनिज्म इन साउथ इण्डिया' में लिखा है कि गुण्टकल रेलवे स्टेशन से दक्षिण की ओर लगभग ४ मीलपर एक कोनकुण्डल नाम का स्थान है जो अनन्तपुर जिले के गुटीतालुके में स्थित है। शिलालेख में इसका प्राचीन नाम 'कोण्डकुन्दे' मिलता है। यहाँ के निवासी इसे आज भी ‘कोण्डकुन्द' कहते हैं। बहुत कुछ संभव है कि कुन्दकुन्दाचार्य का जन्मस्थान यही हो। कुन्दकुन्द के गुरु संसार से नि:स्पृह वीतराग साधुओं के माता-पिता के नाम सुरक्षित रखनेलेखबद्ध करने की परम्परा प्राय: नहीं रही है। यही कारण है कि समस्त आचार्यों के माता-पिता विषयक इतिहास की उपलब्धि नहीं है। हाँ, इनके गुरुओं के नाम किसी -न-किसी रूप में उपलब्ध होते हैं। पञ्चास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति में जयसेनाचार्य ने कुन्दकुन्दस्वामी के गुरु का नाम कुमारनन्दि सिद्धान्तदेव लिखा है और नन्दिसंघ की पट्टावली में उन्हें जिनचन्द्र का शिष्य बतलाया गया है। परन्तु कुन्दकुन्दाचार्य ने बोधपाहुड के अन्त में अपने गुरु के रूप में भद्रबाहु का स्मरण किया है और अपने आप को भद्रबाहु का शिष्य बतलाया है। बोधपाहुड की गाथाएँ इस प्रकार हैं सद्द-विआरो हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं। सो तह कहियं णाणं सीसेण य भद्दबाहुस्स।।६१।। बारसअंगवियाणं चउदसपुव्वंगविउलवित्थरणं। सुयणाणि भद्दबाहु गमयगुरु भयवओ जयओ।।६२।। प्रथम गाथा में कहा गया है कि जिनेन्द्र भगवान् महावीर ने अर्थरूप से जो कथन किया है वह भाषा सूत्रों में शब्द-विकार को प्राप्त हुआ अर्थात् अनेक प्रकार के शब्दों में ग्रथित किया गया है। भद्रबाहु के शिष्य ने उसको उसी रूप में जाना है और कथन किया है। द्वितीय गाथा में कहा गया है कि बारह अंगों और चौदह पूर्वो के विपुल विस्तार के वेत्ता गमकगुरु भगवान् श्रुतकेवली भद्रबाहु जयवंत हों। ये दोनों गाथाएँ परस्पर में संबद्ध हैं। पहली गाथा में कन्दकन्द ने अपने को जिन भद्रबाहु का शिष्य कहा है, दूसरी गाथा में उन्हीं का जयघोष किया है। यहाँ भद्रबाहु से अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ही ग्राह्य जान पड़ते हैं क्योंकि द्वादश अङ्ग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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