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________________ प्रस्तावना xix 'श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवक्रग्रीवाचार्यैलाचार्यगृद्धपिच्छाचार्यनामपञ्चकविराजितेन चतुरङ्गुलाकाशगमनर्द्धिना पूर्वविदेहपुण्डरीकिणीनगरवन्दितश्रीमन्धरापरनामस्वयंप्रभजिनेन तत्श्रुतज्ञानसम्बोधितभरतवर्षभव्यजीवेन श्रीजिनचन्द्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृतग्रन्थे' - ‘पद्मनन्दी,कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य और गृद्धपिच्छाचार्य इन पाँच नामों से जो युक्त थे, चार अङ्गल ऊपर आकाशगमन की ऋद्धि जिन्हें प्राप्त थी, पूर्वविदेहक्षेत्र के पुण्डरीकिणी नगर में जाकर श्रीमन्धर अपर नाम स्वयंप्रभ जिनेन्द्र की जिन्होंने वन्दना की थी,उनसे प्राप्त श्रुतज्ञान के द्वारा जिन्होंने भरतक्षेत्र के भव्यजीवोंको संबोधित किया था, जो जिनचन्द्रसूरि भट्टारक के पट्ट के आभूषणरूप थे तथा कलिकाल के सर्वज्ञ थे, ऐसे कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा विरचित षट्प्राभृत ग्रन्थ में' उपर्युक्त उल्लेखों से साक्षात् सर्वज्ञदेव की वाणी सुनने के कारण कुन्दकुन्दस्वामी की अपूर्व महत्ता प्रख्यापित की गई है। किन्तु कुन्दकुन्दस्वामी के ग्रन्थों में उनके स्वमुख से कहीं विदेहगमन की चर्चा उपलब्ध नहीं होती। उन्होंने समयप्राभृत में सिद्धों की वन्दनापूर्वक निम्न प्रतिज्ञा की है वंदितु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गईं पत्ते। वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवलीभणियं।।१।। इसमें कहा गया कि मैं श्रुतकेवली के द्वारा भणित समयप्राभृत को कहूँगा। यदि सीमंधरस्वामी की दिव्यध्वनि सुनने का सुयोग उन्हें प्राप्त होता तो उसका उल्लेख वे अवश्य करते। फिर भी देवसेन आदि के उल्लेख सर्वथा अकारण नहीं हो सकते। कुन्दकुन्दाचार्य के नाम पञ्चास्तिकाय के टीकाकार जयसेनाचार्य ने कुन्दकुन्द, पद्मनन्दी आदि अपर नामों का उल्लेख किया है, षट्प्रभात के टीकाकार श्रुतसागरसूरि ने पद्मनन्दी, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य और गृद्धपिच्छाचार्य इन पाँचों नामों का निर्देश किया है। नन्दिसंघ से सम्बद्ध विजयनगर के शिलालेख में भी, जो लगभग १३८६ ई० का है, उक्त पाँच नाम बतलाये गये हैं। नन्दिसंघ की पट्टावली में भी, उपर्युक्त पाँच नाम निदिष्ट हैं परन्तु अन्य शिलालेखों से पद्मनन्दी और कुन्दकुन्द अथवा कोण्डकुन्द इन दो नामों का ही उल्लेख मिलता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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