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समयसार
अकृत्रिम ज्ञान है इसलिये इसकी कोई भी अगुप्ति नहीं है। फिर ज्ञानी जीव को अगुप्ति का भय कैसे हो सकता है? वह तो निरन्तर नि:शङ्क रहता हुआ स्वयं सहज ज्ञान को ही सदा प्राप्त होता है-उसी का अनुभव करता है। ___भावार्थ- वस्तु का जो स्वीय स्वरूप है वही परमगुप्ति है, उसमें अन्य का प्रवेश नहीं हो सकता। पुरुष का स्वीयस्वरूप ज्ञान है। इसकी अगुप्ति किसी के द्वारा नहीं हो सकती, इसीसे ज्ञानी जीव के किसी से भी कुछ भी भीति नहीं रहती है। वह तो निशङ्क होता हुआ निरन्तर अपने ज्ञानस्वरूप का अनुभवन करता है। लोक में मनुष्य अपनी रक्षा के अर्थ गढ़, कोट, परिखा आदि बनाते हैं जिसमें शत्रुओं का प्रवेश न हो और अपने धनादिक की गुप्ति रहे, परन्तु आत्मा का जो धन है वह ज्ञान है, उसमें अन्य पदार्थों का प्रवेश नहीं है वह स्वयं गुप्ति स्वरूप ही है। इसीसे ज्ञानी जीव निरन्तर निर्भीक होते हुए स्वात्मस्वरूप में मग्न रहते हैं। ऐसा नियम है कि
जो जहि गुणे दव्वे सो अण्णह्यि दु ण संकमदि दव्वे।
तं अण्णमसंकमंतो कहं तुं परिणामए दव्वं ।। अर्थात् जो वस्तु जिस गुण अथवा द्रव्य में वर्तती है वह अन्य द्रव्य में संक्रमण नहीं करती- अन्य द्रव्यरूप पलटकर नहीं वर्तती। जब वह अन्य द्रव्यरूप संक्रमण नहीं करती तब उसे अन्यरूप कैसे परिणमा सकती है।
जब यह नियम है तब ज्ञानी जीव परपदार्थ से अपना उपयोग हटाकर स्वकीय ज्ञान स्वरूप की ओर ही लगाता है। ज्ञानी का ज्ञानस्वरूप कभी नष्ट नहीं होता। इसलिये वह सदा अगुप्तिभय से दूर रहता है। लोक में धनादि का नाश होता है। पर ज्ञानी उन्हें अपना नहीं मानता।।१५८।।।
शार्दूलविक्रीडितछन्द प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणा: किलास्यात्मनो ___ ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नो छिद्यते जातुचित् । तस्यातो मरणं न किञ्चन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।।१५९।। अर्थ-प्राणों के उच्छेद को मरण कहते हैं, निश्चय से इस आत्मा के प्राण ज्ञान हैं, ज्ञान स्वयमेव शाश्वत है। इसलिये कभी नष्ट नहीं होता, इसलिये ज्ञानी का कुछ भी मरण नहीं होता, फिर उसे मरण का भय कैसे हो सकता है? वह
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