SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्जराधिकार २५९ तो निरन्तर नि:शङ्क रहता हुआ स्वयं सहज ज्ञान को ही सदा प्राप्त होता है-उसी का अनुभव करता है। भावार्थ-प्राणों के उच्छेद को मरण कहते हैं। इस आत्मा का प्राण ज्ञान है, यह ज्ञान नित्य है, इसका कभी भी नाश नहीं होता, इससे जब इसका मरण ही नहीं तब सम्यग्ज्ञानी को किसका भय? वह तो निरन्तर स्वीय ज्ञान का ही अनुभव करता है। लोक में इन्द्रियादिक प्राणों के वियोग को मरण कहते हैं, इन्हीं को द्रव्यप्राण कहते हैं। यह जो द्रव्यप्राण हैं वे पद्गल के निमित्त से जायमान होने के कारण पौद्गलिक हैं। वास्तव में आत्मा के प्राण ज्ञानादिक हैं, उन ज्ञानादिक प्राणों का कभी भी नाश नहीं होता। अतएव जो ज्ञानी जीव हैं, उन्हें मरण का भय नहीं होता। वे तो निरन्तर अपने ज्ञान का ही अनुभव करते हैं।।१५९।। शार्दूलविक्रीडितछन्द एकं ज्ञानमनाद्यनन्तमचलं सिद्ध किलैतत्स्वतो यावत्तावदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः। तन्नाकस्मिकमत्र किञ्चन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।।१६० ।। अर्थ- आत्मा का जो ज्ञान है वह एक है, अनादि, अनन्त और अचल है तथा स्वयं सिद्ध है, वह सर्वदा ही रहता है, उसमें अन्य उदय नहीं है। इसलिये इस ज्ञान में कुछ भी आकस्मिक नहीं है, तब ज्ञानी जीव को उसका भय कैसे हो सकता है? वह तो निरन्तर नि:शङ्क रहता हुआ स्वयं सहज ज्ञान को ही सदा प्राप्त होता है—उसी का सदा अनुभव करता है। भावार्थ-जो अनुभव में नहीं आया, ऐसा कोई भय का कारण उपस्थित हो जावे, उसे आकस्मिक भय कहते हैं। सम्यग्ज्ञानी जीव का ऐसा निर्मल विचार है कि हमारा जो ज्ञानस्वभाव है वह एक अनादि, अनन्त, अचल तथा स्वयं सिद्ध है। उसमें अन्य का उदय नहीं हो सकता। अत: भय के कारणों का अभाव होने से वह निरन्तर निर्भीक रहता हुआ अपने आत्मस्वरूप में लीन रहता है।।१६० ।। मन्दाक्रान्ताछन्द टोत्कीर्णस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वभाज: सम्यग्दृष्टेर्यदिह सकलं ध्नन्ति लक्ष्माणि कर्म। तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाक्कर्मणो नास्ति बन्धः पूर्वोपात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्जरैव।।१६१।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy