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समयसार
और परलोक का भय नहीं है। तत्त्वदृष्टि से विचारो ता ज्ञानगुण की जो जानन क्रिया है वह कभी भी उसे छोड़कर भिन्न नहीं हो सकती और परपदार्थ का उसमे प्रवेश नहीं हो सकता। मात्र ज्ञान की स्वच्छता ही एक ऐसी अनुपम है कि उसमें ज्ञेय प्रतिभासमान होते हैं। अथवा ज्ञेय क्या प्रतिभासमान होते हैं? वह तो ज्ञान का ही परिणाम है परन्तु हम व्यवहार से ऐसा मानते हैं कि हमने परपदार्थ को जाना। जब ऐसा ज्ञानी का सामर्थ्य है कि उसमें परपदार्थ का प्रवेश नहीं तब न कोई पदार्थ सुख का कर्ता है और न कोई पदार्थ दुःख का कर्ता है।।१५५।।
शार्दूलविक्रीडितछन्द एषैकैव हि वेदना यदचलं ज्ञानं स्वयं वेद्यते
निर्भेदोदितवेद्यवेदकबलादेकं सदानाकुलैः। नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्भी: कुतो ज्ञानिनो
निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।।१५६।। अर्थ- सम्यग्ज्ञानी जीवों के यही एक वेदना है कि वे सदा निराकुल रहकर अभेदरूप से उदित वेद्यवेदकभाव के बल से अविचल-कभी नष्ट नहीं होनेवाले ज्ञान का स्वयं वेदन करते हैं अर्थात् अनुभव करते हैं। ज्ञानी के अन्य पदार्थ की वेदना नहीं है तब उसे वेदना का भय कैसे हो सकता है? वह तो सदा निःशङ्क होता हुआ स्वाभाविक ज्ञान को ही प्राप्त होता है, उसका अनुभव करता है।
भावार्थ- इस काव्य में वेदनाभय का वर्णन है। सुख-दुःख का अनुभव करना सो वेदना है। परन्तु सम्यग्ज्ञानी जीव को ऐसा सुख-दु:ख का अनुभव नहीं होता। यह सुख-दुःख का विकल्प स्वाभाविक न होकर मोहकर्म के उदय से जायमान अशुद्ध अनुभूति है। ज्ञानी जीव विचार करता कि मोहकर्म के विपाक से जायमान सुख-दुःख मेरे स्वभाव नहीं है, इसलिये मुझे तद्विषयक आकुलता से क्या प्रयोजन? अत: वह सदा निराकुल रहकर एक ज्ञानस्वभाव का ही वेदन करता है और वह भी अभेद वेद्यवेदकभाव के सामर्थ्य से अर्थात् वेदन करनेवाला भी आत्मा है और जिसका वेदन करता है वह वेद्य भी आत्मा ही है। ज्ञानानुभूति के सिवाय कर्मोदय से आगत अन्य अनुभूति मेरा स्वाभाव नहीं है, तब मुझे उस विषय का भय भी कैसे हो सकता है? कर्म के उदय से जो सुख-दुःख की अनुभूति होती है उसे मैं अपना स्वभाव नहीं मानता, तब मुझे उन कल्पित अनुभूतियों से होनेवाले सुख-दुःख की चिन्ता ही क्या है। एक ज्ञान ही मेरा स्वभाव है, इसलिये उसी का वेदन मैं करता हूँ, ऐसा विचार कर सम्यग्ज्ञानी जीव सदा वेदानाभय से रहित होता है।।१५६।।
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