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निर्जराधिकार
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शार्दूलविक्रीडितछन्द लोकः शाश्वत एक एष सकलव्यक्तो विविक्तात्मन
चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यं लोकयत्येककः। लोकोऽयं न तवापरस्तदपरस्तस्यास्ति तद्भी: कुतो
निश्शङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।।१५५।। अर्थ-पर से भिन्न आत्मा का जो यह चैतन्यलोक है वह शाश्वत है, एक है, सब जीवों के प्रकट है। यह एक सम्यग्ज्ञानी जीव ही स्वयं इस चैतन्य लोक का अवलोकन करता है। वह विचारता है कि हे आत्मन्! यह एक चैतन्यलोक ही तेरा लोक है, इससे भिन्न दूसरा कोई लोक तेरा नहीं है, तब तुझे उसका भय कैसे हो सकता है। ऐसा विचार कर ज्ञानी जीव निरन्तर नि:शङ्करूप से स्वाभाविक ज्ञान को स्वयं ही प्राप्त होता है।
भावार्थ-इस काव्य में ज्ञानी के इस लोक तथा परलोक दोनों का भय नहीं होता है, यह कहा गया है। इस लोक अर्थात् वर्तमान पर्याय में मुझे कष्ट न उठाना पड़े, ऐसा भय होना इस लोक का भय है और परलोक अर्थात् आगामी पर्याय में मुझे कष्ट न भोगना पड़े, ऐसा भय होना परलोक का भय है। सो ज्ञानी जीव ऐसा विचार करता है कि मैं समस्त कर्म, नोकर्म आदि से भिन्न पृथग्द्रव्य हँ, चैतन्य ही मेरा स्वरूप है, यह चैतन्य ही मेरा लोक है, मेरा यह चैतन्यलोक शाश्वत हैकभी नष्ट होनेवाला नहीं है, इसलिये मुझे न इस लोक का भय है और न परलोक का भय है। शरीर अवश्य नाश को प्राप्त होता है, पर वह मेरा कब है? मैं चैतन्य का पुञ्ज हूँ और यह शरीर जड़ अर्थात् ज्ञानदर्शन से शून्य पुद्गलद्रव्य है, इसके नाश से मेरा कुछ नष्ट होनेवाला नहीं है। इसलिये ज्ञानी जीव सदा नि:शङ्क होकर स्वाभाविक ज्ञान स्वरूप को ही प्राप्त होता है उसी प्रकार अनुभव करता है।
संसार में ये प्राणी निरन्तर भयभीत रहते हैं। न जाने ये लोक मेरी कैसी दर्दशा करेंगे, अत: निरन्तर इनके अनुकूल रहने की प्रवृत्ति करता है। न जाने, यह राजलोक मेरे ऊपर कौन-सी आपत्ति ला पटकेंगे, अत: निरन्तर उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा में मग्न रहता है। न जाने, परलोक में कहाँ जाऊँगा, भद्रजन्म हो तो अच्छा, इसके अर्थ निरन्तर नानाप्रकार के दानादि कर परलोक में नि:शङ्क होने की चेष्टा करता है। परन्तु सम्यग्ज्ञानी विचार करता है कि मेरा तो चेतना ही लोक है, उसी का आत्मा के साथ नित्य तादात्म्य है जो किसी काल और किसी शक्ति के द्वारा पृथक् नहीं किया जा सकता है। अत: चाहे मैं यहाँ रहूँ, चाहे परलोक में जाऊँ, मेरा गुण मुझसे भिन्न नहीं हो सकता। अत: सम्यग्ज्ञानी जीव के इस लोक
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