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________________ २५४ समयसार आगे ज्ञानी जीव ही निर्भय होते हैं यह कहते हैं शार्दूलविक्रीडितछन्द सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कर्तुं क्षमन्ते परं __यद्वज्रेऽपि पतत्यमी भयचलत्त्रैलोक्यमुक्ताध्वनि। सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शङ्कां विहाय स्वयं जानन्तः स्वमबध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यवन्ते न हि।।१५४।। अर्थ- सम्यग्दृष्टि जीव ही इस उत्कृष्ट साहस के करने में समर्थ होते हैं कि जिसके भय से विचलित हए तीन लोक के जीव अपना-अपना मार्ग छोड़ देते हैं, ऐसे वज्र के पड़ने पर भी वे स्वभाव से निर्भय होने के कारण सभी प्रकार की शङ्का को छोड़कर स्वयं अपने आपको दूसरे के द्वारा बाधा न जा सके, ऐसे ज्ञानशरीर से युक्त जानते हुए ज्ञान से च्युत नहीं होते। __ भावार्थ--सम्यग्दृष्टि जीव नि:शङ्कित गुण का धारक होता है, अत: वह सदा सब प्रकार के भयों से निर्मुक्त रहता है। जिस वज्र के पड़ने पर तीन लोक के जीव भय से विचलित हो अपना-अपना मार्ग छोड़ देते हैं, उस वज्र के पड़ने पर भी सम्यग्दृष्टि सदा यही विचार करता है कि मैं तो ज्ञानशरीर हूँ अर्थात् ज्ञान ही मेरा रूप है और ऐसा ज्ञान, जो कि कभी किसी के द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता, ऐसा विचार कर वह सदा अपने ज्ञानस्वरूप से च्युत नहीं होता।।१५४।। आगे यही भाव गाथा में दिखाते हैं सम्मद्दिट्ठी जीवा णिस्संका होंति णिब्भया तेण। सत्त-भय-विप्पमुक्का जह्मा तह्या दुणिस्संका।।२२८।। अर्थ-सम्यग्दृष्टि जीव नि:शङ्क होते हैं, इसलिये निर्भय हैं और क्योंकि सप्तभय से निर्मुक्त हैं, इसलिये नि:शङ्क हैं। विशेषार्थ-जिस कारण सम्यग्दृष्टि नित्य ही समस्त कर्मों के फल की अभिलाषा से रहित होते हुए कर्मों से अत्यन्त निरपेक्ष वर्तते हैं। इसलिये ही जान पड़ता है कि ये अत्यन्त नि:शङ्क तीव्र निश्चयरूप होते हुए अत्यन्त निर्भय रहते हैं।।२२८।। आगे सप्तभय के कलशरूप काव्य कहते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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