________________
निर्जराधिकार
२५३
से युक्त होता है, वही अर्थ यहाँ दृष्टान्त द्वारा अन्वय-व्यतिरेक से दृढ़ किया गया है। जिस प्रकार फल की इच्छा रखकर सेवा करनेवाले पुरुष को राजा फल प्रदान करता है और फल की इच्छा न रखकर सेवा करनेवाले को राजा फल प्रदान नहीं करता है। इसी प्रकार फल की इच्छा रखकर कर्म करनेवाले मनुष्य को कर्म फल देता है और फल की इच्छा न रखकर कर्म करनेवाले मनुष्य को कर्म कुछ भी फल नहीं देता। तात्पर्य यह है कि इच्छापूर्वक कर्म करनेवाले पुरुष के ही कर्म बन्ध होता है और इच्छा के बिना कर्म करनेवाले पुरुष को कर्म बन्ध नहीं होता। सम्यग्दृष्टि मनुष्य अन्तरङ्ग से रागादि को चाहता नहीं है किन्तु चारित्र मोह के उदय की बलवत्ता से आये हुए रागादि से प्रेरित होकर भोगोपभोग में प्रवृत्ति करता है, इसलिये वह बन्ध से रहित कहा गया है।।२२४।२२७।। इसी भाव को कलशा में प्रकट करते हैं
शार्दूलविक्रीडितछन्द त्यक्तं येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं
किन्त्वस्यापि कुतोऽपि किञ्चिदपि तत्कर्मावशेनापतेत्। तस्मिन्नापतितेप्यकम्पपरमज्ञानस्वभावे स्थितो
ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः।।१५३।। अर्थ-जिसने कर्म का फल त्याग दिया है वह कर्म करता है, इसकी हम प्रतीति नहीं करते हैं किन्तु इस ज्ञानी के भी किसी कारण से कुल कर्म इसके वश बिना आ पड़ते हैं और उनके आ पड़ने पर भी यह ज्ञानी निश्चय परमस्वभाव में स्थित रहता है। इस स्थिति में ज्ञानी क्या करता है? और क्या नहीं करता है यह कौन जानता है?
भावार्थ-कर्म का बन्ध, कर्म फल के इच्छुक प्राणी के होता है। जिसने कर्म फल की इच्छा छोड़ दी उसे कर्म बन्ध नहीं होता। यहाँ सम्यग्दृष्टि जीव को ज्ञानी कहा गया है। यद्यपि ज्ञानी के ज्ञानचेतना है, कर्मचेतना और कर्मफल चेतना नहीं है, फिर भी कालान्तर में जो कर्म अर्जित किये हैं वे उदय में आकर अपना रस देते हैं, उन्हें यह नहीं चाहता किन्तु चारित्र मोह के सद्भाव में पराधीनता से भोगने पड़ते हैं। भोगने पर भी अपने परमज्ञानस्वभाव में अकम्प स्थिर रहने से वे कर्म, ज्ञानी का कुछ बिगाड़ करने में समर्थ नहीं होते। अत: निष्कर्ष निकला कि ज्ञानी क्या करता है? और क्या नहीं करता है? इसको कौन जाने? वही जाने।।१५३।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org