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समयसार
के समान बाह्य भोगों में यद्यपि प्रवृत्ति करते हैं तो भी स्निग्धता के अभाव में बन्ध को प्राप्त नहीं होते। ।१५२।।
आगे इसी अर्थ को दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं
पुरिसो जह को वि इह वित्तिणिमित्तं तु सेवए रायं ।
तो सो वि देदि राया विविहे भोए सुहुप्पाए ।। २२४ ।। एमेव जीवपुरिसो कम्मरयं सेवदे सुहणिमित्तं । तो सो विदेइ कम्मो विविहे भोए सुहुप्पाए ।। २२५ ।। जह पुण सोचि पुरिसो वित्तिणिमित्तं ण सेवदे रायं । तो सो ण देइ राया विविहे भोए सुहुप्पाए ।। २२६ ।। एमेव सम्मद्विट्टी विसयत्थं सेवए ण कम्मरयं । तो सो ण कम्मो विविहे भोए सुहुप्पाए ।। २२७ ।। (चतुष्कम्)
अर्थ - इस लोक में जिस प्रकार कोई पुरुष आजीविका के निमित्त राजा की सेवा करता है तो वह राजा भी उसके लिये सुख उपजाने वाले नाना प्रकार के भोग देता है। इसी प्राकर यह जीवनामा पुरुष सुख के निमित्त कर्मरूपी रज की सेवा करता है सो वह कर्म भी उसके लिये सुख उपजाने वाले नाना प्रकार के भोग देता है। यदि वह पुरुष आजीविका के निमित्त राजा की सेवा नहीं करता है तो वह राजा उसके लिये सुख उपजाने वाले नानाप्रकार के भोग नहीं देता है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव विषयों के लिये कर्मरूपी रज की सेवा नहीं करता है तो वह कार्य भी उसके लिये सुख उपजानेवाले नानाप्रकार के भोग अर्थात् विषय नहीं देता है ।
विशेषार्थ - जिस प्रकार कोई पुरुष फल के अर्थ राजा की सेवा करता है तो वह राजा उसके लिये फल देता है । उसी प्रकार जीव फल के अर्थ कर्म की सेवा करता है तो कर्म उसके लिये फल देता है और जिस प्रकार वही पुरुष फल के अर्थ राजा की सेवा नहीं करता है तो राजा उसके लिये फल नहीं देता है । उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव फल के अर्थ कर्म की सेवा नहीं करता है तो कर्म उसके लिये फल नहीं देता है ।
ऊपर कलशा में जो कहा गया था कि कर्म किसी को जबर्दस्ती अपने फल युक्त नहीं करता, किन्तु जो फल की इच्छा रखता हुआ कर्म करता है वही कर्म
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