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________________ निर्जराधिकार २५१ क्या तेरा कामचार है अर्थात् तेरी इच्छा से बन्ध रुकने वाला है? अरे भाई ! ज्ञानरूप होकर निवास कर - ज्ञान के साथ मिले हुए रागादिक को दूरकर मात्र ज्ञाता -द्रष्टा रहकर कार्य कर, तभी बन्ध से बच सकता है अन्यथा निश्चित ही अपने अपराध से बन्ध को प्राप्त होगा । भावार्थ-निश्चय से जीव परद्रव्य का न कर्ता है और न भोक्ता है परन्तु अज्ञानी होकर यह परद्रव्य का कर्ता और भोक्ता बन रहा है । ऐसे जीव को आचार्य समझाते हैं कि हे भाई! तूं अपने इस अज्ञान को छोड़, तू तो ज्ञानी है अतः ज्ञानस्वभाव को ही प्राप्त हो, परद्रव्य जब तेरा नहीं है तब तूं उसका उपभोग करनेवाला कैसे बनता है? लोक में परका उपभोग करना असद् उपभोग कहलाता है। इसके उत्तर में वह कहता है कि मैं तो ज्ञानी हूँ, परद्रव्य के उपभोग से मुझे बन्ध नहीं होगा अत: उपभोग करते हुए भी मेरी हानि नहीं है । तब आचार्य कहते हैं कि बन्ध होना और न होना तेरी इच्छा पर निर्भर नहीं है। इस विषय में तेरा स्वेच्छाचार नहीं चल सकता। यदि तूं ज्ञानी होकर रहेगा अर्थात् अपने ज्ञान में - से रागादिक विकारीभावों को पृथक् कर देगा तब तो बन्ध से बच सकेगा, अन्यथा अपने इस अपराध से - रागादि विकारीभावरूप परिणमन से निश्चित ही बन्ध को प्राप्त होगा । । १५१।। आगे रागी मनुष्य ही कर्मबन्ध को प्राप्त होता है, यह कहते हैंशार्दूलविक्रीडितछन्द कर्तारं स्वफलेन यत्किल बलात्कर्मैव नो योजयेत् कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः । ज्ञानं संस्तदपास्तरागरचनो नो बध्यते कर्मणा कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फलपरित्यागैकशीलो मुनिः । । १५२ ।। अर्थ-क्योंकि कर्म अपने करनेवाले कर्ता को जबर्दस्ती अपने फल से युक्त नहीं करता, किन्तु फल की इच्छा रख कर कर्म करनेवाला प्राणी ही कर्म के फल को प्राप्त होता है। इसीलिये ज्ञानरूप होते हुए जिसने राग की रचना को दूर कर दिया है तथा कर्म के फल का त्याग करना जिसका स्वभाव है, ऐसा मुनि (ज्ञानी जीव) कर्म करता हुआ भी कर्म से बद्ध नहीं होता है । भावार्थ- वास्तव में बन्ध का कारण अन्तरङ्ग वासना है। जिनसे दर्शनमोह का उपशमादि हो गया है उनके मिथ्यात्व के जाने से स्वपरभेदज्ञान हो जाता है । वे भेदज्ञान के बल से पर को पर जानते हैं, केवल चारित्रमोह उदय से नहीं चाहते हुए भी औदयिक रागादिक की वेदना के अपहारार्थ रोगनिवृत्ति के लिये औषध सेवन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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