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समयसार
काल में श्वेतभाव को स्वयं छोड़ देता है उसी तरह ज्ञानी जीव भी जिस काल में उस ज्ञानभाव को छोड़ देता है उस काल में अज्ञानभाव से परिणत हुआ अज्ञानभाव को प्राप्त हो जाता है।
विशेषार्थ-जिस प्रकार निश्चय से शङ्ख यद्यपि परद्रव्य का उपभोग करता है तो भी जो उसका स्वीय श्वेतभाव है वह पर के द्वारा कृष्ण नहीं किया जा सकता, क्योंकि पर में परभाव के प्रति निमित्तपने की अनुपपत्ति है अर्थात् परपदार्थ अपर पदार्थ के अन्यथापन करने की सामर्थ्य से शून्य है। इसी प्रकार ज्ञानी जीव यद्यपि परद्रव्य का उपभोग कर रहा हो तो भी उसका जो स्वीय ज्ञानभाव है वह पर के द्वारा अज्ञान नहीं किया जा सकता, क्योंकि पर में परभाव के प्रति निमित्तपन की अनुपपत्ति है अर्थात् परपदार्थ अपरपदार्थ के अन्यथापन करने के सामर्थ्य से शून्य है। इससे यह सिद्ध हुआ कि ज्ञानी के परकृत अपराध के निमित्त से बन्ध नहीं होता है। और जिस प्रकार जिस समय वही शङ्ख परद्रव्य का उपभोग कर रहा हो अथवा न कर रहा हो, श्वेतभाव को छोड़कर स्वयं ही कृष्णभाव से परिणमता है उस समय उसका श्वेतभाव स्वयं ही कृष्णभाव को प्राप्त होता है। उसी प्रकार जिस समय वही ज्ञानी परद्रव्य का उपभोग कर रहा हो अथवा न कर रहा हो, ज्ञान को छोड़कर स्वयमेव अज्ञानभाव से परिणमता है उस समय उसका ज्ञान स्वयं ही अज्ञानभाव को प्राप्त होता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि ज्ञानी जीव के जो बन्ध होता है वह स्वीय अपराध के निमित्त से ही होता है।।२२०।२२३।। आगे यही भाव कलशा के द्वारा दरशाते हैं
शार्दूलविक्रीडितछन्द ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तुमुचितं किंचित्तथाप्युच्यते
बुभुक्षे हन्त न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः। बन्धः स्यादुपभोगतो यदि न तत्कि कामचारोऽस्ति ते
ज्ञानं सन्वस बन्धमेष्यपरथा स्वस्यापराधाद् ध्रुवम् ।।१५१।। अर्थ- हे ज्ञानी जीव! यद्यपि तुझे कभी कर्म करना उचित नहीं है अर्थात् ज्ञानावरणादि कर्म का बन्ध करना तेरे योग्य नहीं है तो भी कुछ कहा जाता है। 'परद्रव्य मेरा कभी नहीं है' ऐसा कहता हुआ यदि तूं उसका उपभोग करता है तो खेद है कि तूं दुर्भुक्त ही अर्थात् खोटा उपभोग करनेवाला ही है। जो वस्तु तेरी नहीं उसका उपभोग करना असद् उपभोग ही है। कदाचित् तूं यह कहे कि ज्ञानी जीव के उपभोग से बन्ध नहीं होता तो इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि तो
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