________________
निर्जराधिकार
२४९
भी कभी अज्ञान नहीं हो सकता। अतएव आचार्य का उपदेश है कि हे ज्ञानी जीव! कर्मोदय से जो कुछ उपभोग प्राप्त हुआ है उसे उदयजनित सामग्री जान अहंकार बुद्धि से रहित होकर भोग, यदि इस नीति से उदासीनभाव से भोगेगा तो परापराधजनित बन्ध तुझे नहीं होगा।
भावार्थ-इस जीव के ज्ञान के साथ अनादिकाल से मोहजन्य विकारीभावों का संमिश्रण चला आ रहा है। अज्ञानी जीव उस संमिश्रण को ज्ञान का स्वभाव जान उससे कभी विरक्त नहीं होता। इसलिये उसके बन्ध सदाकाल जारी रहता है। परन्तु ज्ञानी जीव इस अन्तर को समझ जाता है, वह ज्ञान को ज्ञान और मोहजन्य रागादिक विकारों को विकार समझ लेता है, इसलिये उससे विरक्त हो जाता है। इस विरक्ति के कारण ज्ञानी जीव यद्यपि प्राप्त सामग्री का उपभोग करता है तो भी उसके बन्ध नहीं होता। उसका कर्मोदय अपना फल देकर निर्जीर्ण होता जाता है, नवीन बन्ध का कारण नहीं होता। कर्मोदय, ज्ञानी जीव के ज्ञान को अन्यथा करने के लिये समर्थ नहीं है क्योंकि वस्तु का ऐसा स्वभाव है कि वह सदा वस्तु के ही स्वाधीन रहता है, किसी भी तरह उसका अन्यथा परिणमन नहीं कराया जा सकता।।१५।।
आगे यही अर्थ दृष्टान्त के द्वारा दृढ़ करते हैंभुंजंतस्स वि विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिये दव्वे । संखस्स सेदभावो ण वि सक्कदि किण्णगो काऊं।।२२०।। तह णाणिस्स वि विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दव्वे। भुंजंतस्स वि णाणं ण सक्कमण्णाणदं णेदुं ।।२२१।। जइया स एव संखो सेदसहावं तयं पजहिदूण । गच्छेज्ज किण्हभावं तइया सुक्कत्तणं पजहे ।।२२२।। तह णाणी वि हु जइया णाणसहावं तयं पजहिऊण । अण्णाणेण परिणदो तइया अण्णाणदं गच्छे ।।२२३।।
अर्थ-जिस तरह शङ्ख यद्यपि नाना प्रकार के सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों का उपभोग करता है तो भी उसका श्वेतभाव कृष्ण नहीं किया जा सकता है। उसी तरह ज्ञानी जीव यद्यपि सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों का उपभोग करता है तो भी उसका ज्ञान अज्ञानभाव को प्राप्त नहीं कराया जा सकता और जिस तरह जिस काल में वही शङ्ख उस श्वेताभाव को छोड़कर कृष्णभाव को प्राप्त हो जाता है उस
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org