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________________ २४८ समयसार तरह लिप्त होता है जिस तरह कि कर्दम के मध्य में पड़ा हुआ लोहा जङ्ग से लिप्त हो जाता है। विशेषार्थ-जिसप्रकार निश्चय से सुवर्ण कर्दम के मध्य में पड़ा हुआ होने पर भी कर्दम से लिप्त नहीं होता, क्योंकि कर्दम से लिप्त होना उसका स्वभाव नहीं है। उसी प्रकार ज्ञानी जीव कर्मों के मध्य में अर्थात् मन, वचन काय के व्यापार के बीच में पड़ा हुआ होने पर भी कर्म से लिप्त नहीं होता, क्योंकि समस्त परद्रव्य सम्बन्धी राग का त्यागी होने से कर्म से लिप्त होना उसका स्वभाव नहीं है। जिसप्रकार लोहा कर्दम के मध्य में पड़कर कर्दम से लिप्त हो जाता है क्योंकि कर्दम से लिप्त होना उसका स्वभाव है। उसी प्रकार अज्ञानी जीव कर्मों के मध्य में पड़कर कर्म से लिप्त होता है क्योंकि समस्त परद्रव्य सम्बन्धी राग से युक्त होने के कारण कर्मों से लिप्त होना उसका स्वभाव है। सुवर्ण का ऐसा विलक्षण स्वभाव है कि वह कितने ही कालपर्यन्त कर्दम में पड़ा रहे, परन्तु उसके वर्ण में विकार नहीं होता। इसी तरह ज्ञानी जीव का ऐसा विलक्षण स्वभाव है कि वह समस्त कार्य करता हुआ भी कर्मबन्ध से रहित रहता है। कर्मबन्ध का कारण रागपरिणति है और ज्ञानी जीव के वह रागपरिणति छूट जाती है। इसलिये केवल क्रिया से उसके बन्ध नहीं होता। परन्तु अज्ञानी जीव की परिणति इससे विलक्षण है। जिस प्रकार लोहा कर्दम में डाल दिया जावे तो वह उसके सम्बन्ध से जंगाल से लिप्त हो जाता है उसी प्रकार अज्ञानी जीव कर्म के मध्य में पड़ जावे अर्थात् मन, वचन काय की प्रवृत्ति रूप व्यापार करे तो वह कर्मों से लिप्त हो जाता है क्योंकि कर्मबन्ध का प्रमुख कारण रागभाव है और वह उसके विद्यमान है ही।।२१८।२१९।। । आगे जिसका जो स्वभाव है वह वैसा ही रहता है, यह कलशा द्वारा कहते हैं शार्दूलविक्रीडितछन्द यादृक् तादृगिहास्ति तस्य वशतो यस्य स्वभावो हि यः कर्तुं नैव कथंचनापि हि परैरन्यादृशः शक्यते। अज्ञानं न कदाचनापि हि भवेज्ज्ञानं भवत्संततं ___ ज्ञानिन् भुक्ष्व परापराधजनितो नास्तीह बन्धस्तव।।१५०।। अर्थ-जिस वस्तु का जो जैसा स्वभाव होता है वह वैसा ही रहता है, वह किसी भी तरह दूसरों के द्वारा अन्यथा नहीं किया जा सकता। इसी पद्धति से ज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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