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________________ निर्जराधिकार २४७ स्वागताछन्द ज्ञानिनो न हि परिग्रहभावं कर्म रागरसरिक्ततयति। रंगयुक्तिरकषायितवस्त्रे स्वीकृतैव हि बहिर्मुठतीह।।१४८।। अर्थ-रागरूपी रस से रहित होने के कारण ज्ञानी जीव की क्रिया परिग्रह भाव को प्राप्त नहीं होती, क्योंकि हर्रा, फिटकरी आदि से उत्पन्न कषायलापन से रहित वस्त्र में जो रङ्ग दिया जाता है वह स्वीकृत होने पर भी बाहर ही बाहर रहता है, अन्तरङ्ग में प्रवेश नहीं करता।।१४८।। स्वागताछन्द ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि यतः स्यात् सर्वरागरसवर्जनशीलः। लिप्यते सकलकर्मभिरेष कर्ममध्यपतितोऽपि ततो न।।१४९।। अर्थ-ज्ञानी जीव का ऐसा सहज स्वभाव है कि उसकी आत्मा में स्वयमेव राग की उत्पत्ति नहीं होती। इसी से ज्ञानी जीव कर्ममध्य में पतित होकर भी कर्मों से लिप्त नहीं होता।।१४९।। आगे दृष्टान्त द्वारा इसी बात का समर्थन करते हैंणाणी रागप्पजहो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो। णो लिप्पदि रजएण दु कद्दम-मझे जहा कणयं।।२१८।। अण्णाणी पुण रत्तो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो। लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दम-मझे जहा लोहं।।२१९।। (युग्मम्) अर्थ- ज्ञानी जीव सब द्रव्यों में राग का त्याग करनेवाला है, इसलिये वह मन, वचन, काय के व्यापाररूप कर्म के मध्य में पड़ा हुआ भी कर्मरूपी रज से उस तरह लिप्त नहीं होता जिस तरह कि कर्दम के मध्य में पड़ा हुआ सुवर्ण जङ्ग से लिप्त नहीं होता। किन्तु अज्ञानी जीव सब द्रव्यों में राग करता है, इसलिये वह मन, वचन, काय के व्यापार रूप कर्म के मध्य में पड़ा हुआ कर्मरूपी रज से उस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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