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________________ २४६ समयसार समय वेद्यभाव नहीं होता। यह वेद्यवेदकभाव कर्मोदय से जायमान होने के कारण आत्मा का विभाव कहलाता है, स्वभाव नहीं। विभाव होने से वह क्षणभङ्गर है। अत: आत्मा का वेदकभाव जिस वेद्यभाव की इच्छा करता है वह क्षणभङ्गुर होने से वेदन करने में नहीं आता। जब वेदन करने में नहीं आता तब ज्ञानी जीव उसकी इच्छा ही क्यों करेगा? वह तो सब ओर से विरक्ति को ही प्राप्त होता है।।१४७।। आगे कहते हैं कि ज्ञानी जीव के भोग-उपभोग में राग नहीं होता हैबंधुवभोगणिमित्ते अज्झवसाणोदएसुणाणिस्स । संसारदेहविसएसु णेव उप्पज्जदे रागो।।२१७।। अर्थ-बन्ध और उपभोग के निमित्त जो अध्यवसान के उदय हैं वे सब संसारविषयक तथा देहविषयक हैं उनमें ज्ञानी जीव के राग नहीं होता है। विशेषार्थ-इस लोक में निश्चय से जो अध्यवसान के उदय हैं उनमें कितने तो ऐसे हैं जिनका विषय संसार है और कितने ही ऐसे हैं जिनका विषय शरीर है। जितने संसारविषयक हैं वे बन्ध के निमित्त हैं और जितने शरीरविषयक हैं वे उपभोग के निमित्त हैं। जो बन्ध के निमित्त हैं वे राग-द्वेष-मोह आदिक हैं और जो उपभोग के निमित्त हैं वे सुख-दुःख आदिक हैं। इन सभी भावों में ज्ञानी जीव के राग नहीं होता है क्योंकि ये सभी भाव नानापरद्रव्यों के सम्बन्ध से जन्य हैं और ज्ञानी जीव टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभाव वाला है। अतएव ज्ञानी जीव के साथ उनका सम्बन्ध नहीं बन सकता है। __ मोहनीयकर्म के उदय से जो मोह-राग-द्वेष तथा हर्षविषादादिक भाव होते हैं उन्हें अध्यवसानभाव कहते हैं। इन अध्यवसानभावों में जो मोह-राग-द्वेष भाव हैं वे संसारविषयक हैं अर्थात् इन्हीं भावों का निमित्त पाकर आत्मा की संसृति-परम्परा होती है और यही भाव आगामीकर्मबन्ध में निमित्त पड़ते हैं तथा जो हर्ष-विषादादिक भाव हैं वे शरीरविषयक हैं और उपभोग के निमित्त हैं अर्थात् शरीर में सुखादिक द्वारा उपक्षीण हो जाते हैं। इनसे संसार-संततिका प्रवाह नहीं चलता, क्योंकि जब तक इनके साथ रागादिक परिणाम न हों तब तक वे स्वयं बन्ध के जनक नहीं होते। अतएव जो सम्यग्ज्ञानी जीव हैं उनके इन अखिल अध्यवसानादिक भावों में रागभाव नहीं है।।२१७।। यही भाव कलशा में दिखाते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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