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निर्जराधिकार
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अर्थ-जो भाव अनुभव करता है उसे वेदकभाव कहते हैं और जो अनुभव करने योग्य है उसे वेद्यभाव कहते हैं। यह दोनों भाव क्रम से होते हैं, एक समय में नहीं होते अर्थात् जिस काल में वेदकभाव है उस काल में वेद्यभाव नहीं है और जिस काल में वेद्यभाव है उस काल में वेदकभाव नहीं है अर्थात् दोनों ही समय-समय में नष्ट हो जाते हैं। उन्हें जाननेवाला ज्ञानी जीव कदापि दोनों को भी नहीं चाहता है।
विशेषार्थ-ज्ञानी जीव स्वभाव भाव के ध्रुवपन से नित्य ही टङ्कोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभाव है और वेद्यवेदकभाव उत्पन्न तथा विनाशस्वभावपन से अनित्य हैं। इन दोनों में जो भाव आकांक्षा करता है कि मैं इच्छा में आये हुए भाव का वेदन करूँगा। सो जबतक वेदन करनेवाला वेदकभाव होता है उसको पहले जिस भाव का वेदन करना चाहता था, वह वेद्यभाव विलय को प्राप्त हो जाता है, उसके विलीन होने से वेदकभाव किसको वेदे? कदाचित् कहो कि वेदकभाव के पश्चात् होनेवाला जो वेद्यभाव है उसे वेदे, सो जबतक आकांक्षा का विषय वेद्यभाव उत्पन्न होता है तबतक यह वेदकभाव नष्ट हो जाता है कौन वेदे? कदाचित् वेद्यभाव के पश्चात् होनेवाला वेदकभाव उसे वेदन करेगा सो जबतक वेदन करनेवाला वेदकभाव होगा तबतक वेद्यभाव नष्ट हो जावेगा। इसप्रकार अनवस्थिति होने से अभीष्ट की सिद्धि होना असंभव है, ऐसा जानकर ज्ञानी जीव उभयभाव की अभिलाषा से शून्य हैं।।२१६।। यही भाव कलशा में दिखाते हैं
स्वागताच्छन्द वेद्यवेदकविभावचलत्वाद्वेद्यते न खलु कांक्षितमेव।
तेन कांक्षति न किञ्चन विद्वान् सर्वतोऽप्यतिविरक्तिमुपैति।।१४७।। अर्थ-वेद्य और वेदकभाव दोनों ही क्षणिक हैं। इसीसे जो कांक्षित भाव है वह कदापि वेदने में नहीं आता, इसीलिये ज्ञानी जीव कुछ भी आकांक्षा नहीं करता, प्रत्युत सर्वभावों से विरक्तिभाव को प्राप्त होता है।
भावार्थ-परमार्थ से यह जीव बाह्य भोग-उपभोग का अनुभव नहीं करता है, किन्तु भोग-उपभोग की आकांक्षा करनेवाले आत्मपरिणाम का ही अनुभव करता है। इस स्थिति में आत्मा ही वेद्य है और आत्मा ही वेदक है। आत्मा जिस भाव का वेदन करता है वह वेद्य कहलाता है और जो भाव अनुभव करता है वह वेदक कहलाता है। आत्मा का यह वेद्यवेदकभाव क्रमवर्ती है अर्थात् जिस समय वेद्यभाव होता है उस समय वेदकभाव नहीं होता और जिस समय वेदकभाव होता है उस
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