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________________ २४४ समयसार भावार्थ-अज्ञानावस्था में बाँधे हुए कर्मों का उदय तीव्र, मन्द या मध्यमरूप से ज्ञानी जीव के भी होता है और उस उदयानुसार ज्ञानी जीव के नाना भाव भी होते हैं। परन्तु वह उन भावों को आत्मा का स्वभाव नहीं मानता, इसलिये वे परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होते । । १४६ । । आगे कहते हैं कि ज्ञानी के त्रिकाल सम्बन्धी उपभोग का परिग्रह नहीं है उप्पण्णोदय भोगो विओगबुद्धीए तस्स सो णिच्चं । कंखामणागयस्स य उदयस्स ण कुव्वए णाणी । । २१५ । । अर्थ- ज्ञानी जीव के वर्तमान में कर्मविपाक से जो भोग प्राप्त हुआ है वह निरन्तर वियोगबुद्धि से ही प्रवर्तता है अर्थात् उसका उपभोग करते हुए भी ज्ञानी जीव का सदा ऐसा अभिप्राय रहता है कि यह आपत्ति कब पृथक् हो और अनागत (भविष्य) काल में होने वाले उदय की आकांक्षा ज्ञानी नहीं करता है । इसतरह वर्तमान और भविष्यत् काल सम्बन्धी उपभोग का परिग्रह ज्ञानी के नहीं है तथा अतीतकाल सम्बन्धी उपभोग का परिग्रह अतीत हो जाने के कारण अभावरूप है ही । इस प्रकार ज्ञानी जीव त्रिकाल सम्बन्धी उपभोग के परिग्रह से रहित है । विशेषार्थ - कर्म के उदय से जो उपभोग प्राप्त होता है वह अतीत, वर्तमान और अनागत के भेद से तीन प्रकार का है। उनमें जो अतीत है वह तो अतीत हो जाने के कारण ही परिग्रह भाव को नहीं धारण करता है और अनागत भोग आकांक्षा करने से ही परिग्रह भाव को प्राप्त हो सकता है अन्यथा नहीं, सो ज्ञानी जीव के अनागत - आगामी भोग की इच्छा नहीं है । इसलिये वह भी परिग्रह भाव को नहीं प्राप्त होता है। तथा वर्तमान में जो उपभोग प्राप्त है उसे अन्तरंग से भोगना नहीं चाहता है अर्थात् उससे निरन्तर विरक्तबुद्धि रहता है, क्योंकि ज्ञानी जीव के अज्ञानमय भाव का अभाव है । अतः वर्तमान उपभोग उसके परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होता है । अनागत भोग की ज्ञानी के इच्छा ही नहीं है, क्योंकि ज्ञानी जीव के अज्ञानमयभावरूप इच्छा का अभाव है इसलिये अनागतकर्म के उदय का उपभोग भी ज्ञानी के परिग्रहभाव को प्राप्त नहीं होता है । । २१५ ।। आगे ज्ञानी भविष्यत् काल में होनेवाले भोग को क्यों नहीं चाहता है ? इसका उत्तर कहते हैं जो वेददि वेदिज्जदि समए समए विणस्सदे उहयं । तं जागो दु णाणी उभयं पि ण कखइ कया वि । । २१६ । । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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