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निर्जराधिकार
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जीव के पान का परिग्रह नहीं है। उसके तो एक ज्ञानमय ज्ञायक भाव ही है। अत: वह केवल पान का ज्ञायक है।
यद्यपि आहार की तरह पान में भी प्रवृत्ति छठवें गणस्थान तक होती है तो भी ज्ञानी जीव उसे आत्मा का स्वभाव नहीं मानता। असाता वेदनीय की उदीरणा से प्रेरित होकर शरीर की स्थिरता के लिये ज्ञानी जीव यद्यपि आहार और पान को ग्रहण करता है तो भी तद्विषयक इच्छा का अभाव होने से वह पान के परिग्रह से रहित है वह केवल पान का ज्ञायक ही होता है।
आगे कहते हैं कि ज्ञानी जीव इसी तरह अन्य भावों की भी इच्छा नहीं करता है
एमादिए दु विविहे सव्वे भावे य णिच्छदे णाणी। जाणगभावो णियदो णीरालंबो दु सव्वत्थ।।२१४।।
अर्थ-इनको आदि लेकर और भी जो विविध प्रकार के सर्व भाव हैं ज्ञानी जीव उनकी इच्छा नहीं करता है। अतएव निश्चय से उसके ज्ञायकभाव ही है, अन्य सब विषयों में तो वह उसके निरालम्ब है।
विशेषार्थ-इस प्रकार इन भावों के अतिरिक्त अन्य भी जो अनेक प्रकार के परद्रव्य सम्बन्धी भाव हैं ज्ञानी जीव उन सबकी इच्छा नहीं करता, इसलिये ज्ञानी जीव के परद्रव्य सम्बन्धी सभी भावों का परिग्रह नहीं है। इस प्रकार ज्ञानी जीव के अत्यन्त निष्परिग्रहपन सिद्ध होता है। इस तरह आत्मातिरिक्त निखिल पदार्थों के परिग्रह का अभाव होने से जिसने समस्त अज्ञानभाव को उगल दिया है, ऐसा ज्ञानी जीव सभी पदार्थों में अत्यन्त निरालम्ब होकर प्रतिनियत एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायकभाव का धारक होता हुआ साक्षात् विज्ञानघन आत्मा का ही अनुभव करता है।।२१४।। अब यही भाव कलशा में प्रकट करते हैं
स्वागताछन्द पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकाज्ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः।
तद्भवत्वथ च रागवियोगानूनमेति न परिग्रहभावम्।। १४६ ।। अर्थ-पूर्वबद्ध निजकर्म के विपाक से यद्यपि ज्ञानी जीव के परपदार्थों का उपभोग होता है तथापि राग के वियोग से वह उपभोग परिग्रहपन को नहीं प्राप्त होता है।
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