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________________ निर्जराधिकार २३३ विशेषार्थ- निश्चय से इस भगवान् आत्मा में उपलब्ध बहुत से द्रव्यरूप तथा भावरूप भावों के मध्य में जो अतत्स्वभाव से उपलभ्यमान, अनियत अवस्था वाले, अनेक, क्षणिक तथा व्यभिचारी भाव हैं वे सभी स्वयं अस्थायी होने के कारण स्थाता, जो आत्मा है, उसके स्थान होने के लिये असमर्थ होने से अपदभूत हैं और जो तत्स्वभाव से उपलभ्यमान, नियत अवस्थावाला, एक नित्य तथा अव्यभिचारी भाव है वह एक ही स्वयं स्थायी होने के कारण स्थाता, जो आत्मा है, उसका स्थान होने के लिये समर्थ होने से पदभूत है। इसलिये सम्पूर्ण अस्थायी भावों को छोड़कर स्थायी भावभूत तथा परमार्थ रसरूप से आस्वाद में आता हुआ यह एक ज्ञान ही आस्वाद करने के योग्य है।।२०३।। यही भाव कलशों में कहते हैं एकमेव हि तत्स्वाद्यं विपदामपदं पदम्। अपदान्येव भासन्ते पदान्यन्यानि यत्पुरः।। १३९।। अर्थ-जो विपत्तियों का अपद है-अस्थान है, और जिसके आगे अन्य सब भाव अपद ही भासमान होते हैं वही एक पद आस्वाद करने के योग्य है। भावार्थ-निश्चय से वह एक ज्ञानरूप पद आस्वाद करने के योग्य है क्योंकि वह सम्पूर्ण आपदाओं का अपद है तथा उसका आस्वाद आनेपर अन्य निखिल भाव अपद भासने लगते हैं। ऐसा नियम है कि नकली रूप रात्रि में ही चमत्कारजनक होता है किन्तु जहाँ सूर्य का उदय हुआ वहाँ ऊपरी चमक की सब आभा जाती रहती है।।१३९।। शार्दूलविक्रीडितछन्द एकं ज्ञायकभावनिर्भरमहास्वादं समासादयन् स्वादं द्वन्द्वमयं विधातुमसहः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन्। आत्मात्मानुभवानुभावविवशो भ्रश्यद्विशेषोदयं सामान्यं कलयत्किलैष सकलं ज्ञानं नयत्येकताम्।। १४० ।। अर्थ-जो एक ज्ञायकभाव से पूरित महास्वाद को प्राप्त हो रहा है, जो रागादिक से मिश्रित द्वन्द्वमय स्वाद का आस्वादन करने में असमर्थ है, जो अपनी वस्तपरिणति को जानता है, तथा जो आत्मानुभव की महिमा से विवश हो रहा है, ऐसा यह आत्मा विशेष के उदय से रहित सामान्यभाव को प्राप्त समस्त ज्ञान की एकरूपता को प्राप्त कराता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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