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समयसार
भावार्थ-जब यह आत्मा, आत्मद्रव्य की परिणति को जानने लगता है अर्थात् उसे जब ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाता है कि आत्मा की परिणति सदा आत्मरूप ही रहती है, अन्यरूप नहीं होती, तब वह रागादि से मिश्रित द्वन्द्वमय स्वाद को छोड़ देता है अर्थात् रागादिक को आत्मा से पृथक् समझता है, “मैं एक ज्ञायक ही हूँ अर्थात् पदाओं का जानना ही मेरा स्वभाव है, उनमें इष्टानिष्ट का विकल्प करना मेरा स्वभाव नहीं है' इस प्रकार एक ज्ञायकभाव का ही जब आस्वाद लेता है तथा
आत्मानुभव की महिमा से विवश होकर अन्य पदार्थों के अनुभव की ओर जब इसका लक्ष्य नहीं जाता तब विशेषोदय से रहित सामान्यरूपता को प्राप्त जो ज्ञान है उसे एकरूप ही कर देता है अर्थात् ज्ञान के नानाविकल्पों को गौण कर देता है।।१४०।।
आगे ज्ञान की एकरूपता का ही समर्थन करते हैंआभिणिसुदोहिमणकेवलं च तं होदि एक्कमेव पदं। सो एसो परमट्ठो जं लहिदुं णिव्वुदि जादि।।२०४।।
अर्थ-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये सब ज्ञान के भेद एक ही पदरूप होते हैं अर्थात् सामान्यरूप से एक ज्ञान ही है। यह सामान्य ज्ञान ही परमार्थ है, जिसे प्राप्त कर जीव निर्वाण को प्राप्त होता है।
विशेषार्थ-निश्चय से आत्मा परमार्थ है और वह ज्ञानस्वरूप ही है। आत्मा एक ही पदार्थ है, इसलिये ज्ञान भी एक ही पद है और जो ज्ञाननामा एक पद है वही परमार्थ है और वही मोक्ष का साक्षात् कारण है। इसके जो मतिज्ञानादिक पाँच भेद हैं वे इस लोक में ज्ञानरूपी एकपद का भेद न करने में समर्थ नहीं हैं किन्तु उसी एक पद का समर्थन करते हैं। जिस प्रकार इस संसार में मेघपटल से आच्छादित सूर्य, उस मेघपटल का क्रम-क्रम से विघटन होने पर जब प्रकटरूपता को प्राप्त होता है और उस समय उसके जो हीनाधिक प्रकाश के भेद प्रकट होते हैं वे सूर्य के प्रकाशस्वभाव का भेदन नहीं करते। तात्पर्य यह है कि जब मेघपटल से सूर्य आच्छादित हो जाता है तब उसका प्रकाश मेघपटलों से व्यक्त नहीं होता और जैसे-जैसे मेघपटल दूर हो जाते हैं वैसे-वैसे उसका प्रकाश व्यक्त होता जाता है। उन प्रकाशों के द्वारा सूर्य के प्रकाशस्वभाव की वृद्धि ही होती है। इसी प्रकार आत्मा ज्ञान-दर्शनस्वभाव वाला है। परन्तु अनादिकाल से ही कर्मपटल से आच्छिन्न होने के कारण उसका वह स्वभाव व्यक्त नहीं होता। जैसे-जैसे कर्मपटल का अभाव होता जाता है वैसे-वैसे आत्मा के ज्ञान-दर्शनगुणों का विकास होता जाता है, वे विकासरूप ज्ञान-दर्शन, आत्मा के ज्ञानस्वभाव का भेदन नहीं करते, किन्तु उसी का अभिनन्दन
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