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समयसार
बलवत्ता से रागी होता हुआ भी उस राग को आत्मा का परिणमन नहीं मानता।।२०१।२०२।।
अब कलशा द्वारा यह प्रकट करते हैं कि राग इस जीव का पद नहीं है किन्तु चैतन्य ही इसका पद है
मन्द्राक्रान्ताछन्द आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ताः
सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमन्धाः। एतैतेत: पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः
शुद्धः शुद्धः स्वरसभरत: स्थायिभावत्वमेति।।१३८।। अर्थ-अनादि संसार से पद-पद पर नित्य मत्त हए ये रागी प्राणी जिस पद में सो रहे है अर्थात् रमण कर रहे हैं वह आत्मा का पद नहीं है, पद नहीं है (दो बार कहने से आचार्य महाराज की अतिकरुणा सूचित होती है)। अरे अन्धे प्राणियों! जागो, यहाँ आओ, यहाँ आओ, यह तुम्हारा पद है, यह तुम्हारा पद है, जहाँ पर चैतन्यधातु शुद्ध है, शुद्ध है तथा स्वरस के भार से स्थायिभाव को प्राप्त हो रही है।
भावार्थ-यह प्राणी अनादिकाल से रागादिकों को अपना निजभाव मान रहा है। इसीसे उनकी सिद्धि के अर्थ परपदार्थों के संयोग-संग्रह और वियोग में अपना सर्वस्व लगा देता है और निरन्तर उन्हीं की रक्षा के लिये प्रयत्न करता है। उसे श्रीगुरु समझाते हैं—रे अन्ध! जिन वस्तुओं में तुम अपने स्वरूप को भूलकर मोहित हो रहे हो, यह तुम्हारा अज्ञानभाव है, अब अपने निजस्वरूप को जानो, जहाँ पर चेतना का पिण्ड, सर्व विकल्पजालों में रहित सुख और शान्ति से स्थायीपन को प्राप्त करता है वही तुम्हारा पद है।।१३८।।
आगे वह पद कौन है, यह कहते हैंआदम्हि दव्वभावे अपदे मोत्तूण गिण्ह तह णियदं । थिरमेगमिमं भावं उपलब्भंतं सहावेण ।।२०३।।
अर्थ- आत्मा में परनिमित्त से जायमान अपदरूप जो द्रव्य कर्म और भावकर्म हैं, उन्हें त्यागकर स्वभाव से उपलभ्यमान, स्थिर तथा एकरूप इस चैतन्यभाव को, जिसतरह यह नियत है, उसी तरह ग्रहण करो।
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