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________________ २२८ समयसार सम्पन्न भोगों को भोगता हुआ भी रागादिक भावों के अभाव से विषयसेवन के फल का स्वामित्व न होने के कारण नहीं भोगनेवाला है और मिथ्यादृष्टि विषयों का सेवन न करता हुआ भी रागादिक भावों के सद्भाव से विषय सेवन के फल का स्वामित्व होने से सेवन करनेवाला है।।१९७।। यही भाव कलशा में दरखाते हैं मन्दाक्रान्ताछन्द सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या। यस्माज् ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वत: स्वं परं च स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात्।।१३६।। अर्थ-सम्यग्दृष्टि जीव के नियम से ज्ञान और वैराग्य की शक्ति होती है। अतएव यह स्वकीय वस्तुस्वरूप का अभ्यास करने के लिए स्वीय रूप की प्राप्ति और पररूप के त्याग द्वारा वास्तव में यह मेरा स्व है और यह पर है, इस वृत्त को अच्छी तरह जानकर अपने स्वरूप में ठहरता है और परद्रव्यस्वरूप सब प्रकार के रागयोग से विरत होता है। भावार्थ-सम्यग्दृष्टि जीव के ज्ञान और वैराग्य का होना अवश्यंभावी है, इसलिए ज्ञान के द्वारा वह सर्वप्रथम स्व और पर के भेदज्ञान को प्राप्त होता है अर्थात् उसे इस बात का अच्छी तरह निर्णय हो जाता है कि यह तो मेरा आत्मद्रव्य है और यह मुझमें परद्रव्य के निमित्त से उत्पन्न हुआ विकारी परिणमन है। कर्म और नोकर्म तो स्पष्ट ही परद्रव्य हैं। परन्तु कर्म की विपाकदशा में जायमान जो रागादिक विकारी भाव हैं वे भी परद्रव्य ही हैं। मेरा स्वभाव तो शुद्ध चैतन्य है वही मेरा स्वद्रव्य है। भेदविज्ञान के द्वारा जब उसे इस प्रकार का निर्णय हो जाता है तब वैराग्यशक्ति की महिमा से वह शुभ-अशुभ सभी प्रकार के रागयोग से निवृत्त होकर अपना उपयोग अपने आपमें ही स्थिर कर लेता है।।१३६।। सम्यग्दृष्टि जीव सामान्य से स्व और पर को इस प्रकार जानता हैउदयविवागो विवहो कम्माणं वण्णिओ जिणवरेहि। ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमिक्को।।१९८।। अर्थ-कर्मों का उदयविपाक (उदयरस) जिनेश्वरदेव ने नाना प्रकार का कहा है। परन्तु वे कर्मविपाक मेरे स्वभाव नहीं हैं। मैं तो एक ज्ञायकस्वभावरूप हूँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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