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निर्जराधिकार
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मदिरापान में रुचि नहीं रखता है, कदाचित् किसी कारणवश वह मदिरा का पान भी करले, तो भी उसके मदिरापान की तीव्र अरुचि होने से वह मदिरा उसे मतवाला बनाने में असमर्थ रहती है, इसी प्रकार ज्ञानी जीव परपदार्थ को किञ्चिन्मात्र भी नहीं भोगना चाहता, किन्तु संयमभाव का अभाव होने से सातादि पुण्य प्रकृतियों के उदय से प्राप्त उपभोग-सामग्री का भोग भी करता है, तो भी रागादिक भावों का अभाव होने से बँधता नहीं है— कर्मबन्ध को प्राप्त नहीं होता है । । १९६ ।।
आगे कलशा द्वारा ज्ञानी विषयों का सेवक होने पर भी असेवक है, यह दिखाते हैं
रथोद्धताछन्द
नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत् स्वं फलं विषयसेवनस्य ना ।
ज्ञानवैभवविरागताबलात् सेवकोऽपि तदसावसेवकः । । १३५ । ।
अर्थ - जिस कारण ज्ञानी पुरुष विषयों का सेवन होने पर भी विषय सेवन के अपने फल को नहीं प्राप्त होता है उस कारण ज्ञान के वैभव और वैराग्य के बल से वह विषयों का सेवन करनेवाला होकर भी सेवन करनेवाला नहीं कहा
जाता।
भावार्थ- ज्ञानी मनुष्य विषयों का सेवन करने पर भी उसके फल को प्राप्त नहीं होता है। सो यह उसके ज्ञानवैभव और विरागता की ही अद्भुत सामर्थ्य है। इसी सामर्थ्य से वह विषयों का सेवक होकर भी असेवक ही कहा जाता है ।
अब यही दिखाते हैं
सेवंतो वि ण सेवइ असेवमाणो वि सेवगो कोई ।
पगरणचेट्ठा कस्स वि ण य पायरणो त्ति सो होई ।। १९७।।
अर्थ-कोई विषयों का सेवन करता हुआ भी नहीं सेवन करता है और कोई नहीं सेवन करता हुआ भी सेवन करता है । जैसे किसी मनुष्य के प्रकरण की चेष्टा तो है अर्थात् कार्य का व्यापार तो है परन्तु वह प्राकरणिक नहीं है— उस कार्य का कराने वाला स्वामी नहीं है।
विशेषार्थ - जिस प्रकार कोई पुरुष किसी विवाह आदि कार्यों में काम आदि तो करता है, परन्तु उसका स्वामी न होने से उसके फल का भोक्ता नहीं होता है और जो उस कार्य का स्वामी है वह उस कार्य के करने में अव्यापृत है, तो भी उसका स्वामी होने से फलभोक्ता है । उसी प्रकार सम्यग्ज्ञानी जीव पूर्वकर्मोदय से
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