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समयसार
की इस महिमा का वर्णन कलशा द्वारा करते हैं
तज्ज्ञानस्यैव सामर्थ्य विरागस्यैव वा किल।
यत्कोऽपि कर्मभिः कर्म भुञ्जानोऽपि न बध्यते ॥१३४।। अर्थ-यह ज्ञान की ही सामर्थ्य है अथवा निश्चयकर वीतरागभाव की महिमा है कि कोई जीव (सम्यग्दृष्टिजीव) कर्म का उपभोग करता हुआ भी कर्मों के द्वारा नहीं बँधता है।।१३४।।
इसके अनन्तर ज्ञान का सामर्थ्य दिखाते हैंजह विसमुव जंतो वेज्जो पुरिसो ण मरणमुवयादि। पुग्गलकम्मस्सुदयं तह भुंजदि णेव बज्झए णाणी ।।१९५।।
अर्थ-जिस प्रकार वैद्य विष का उपभोग करता हुआ भी मरण को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार ज्ञानी आत्मा पुद्गलकर्म के उदय को भोगता है तो भी कर्म से नहीं बँधता है।
विशेषार्थ-जैसे कोई विष-वैद्य, परके मरण का कारण जो विष है उसे खाता हुआ भी अमोघ विद्या के बल से विष की मारकत्व शक्ति के रोक देने से मरण को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार अज्ञानी जीवों के रागादिक भावों का सद्भाव होने से जो पुद्गलकर्म का उदय बन्ध का कारण है उसी का उपभोग करता हुआ ज्ञानी जीव, अमोघ ज्ञान के सामर्थ्य से रागादिक भावों का अभाव हो जाने पर बन्ध का सामर्थ्य रुक जाने से बन्ध को प्राप्त नहीं होता। केवल क्रिया बन्ध का कारण नहीं, जबतक रागादिक परिणाम न हों, तबतक वह स्थिति और अनुभाग बन्ध में निमित्त नहीं। जैसे बिच्छू का डंक निकल जाने के बाद उसका काटना विष का कारण नहीं होता।।१९५।।
अब वैराग्य का सामर्थ्य दिखाते हैंजह मज्जं पिवमाणो अरदिभावेण मज्जदि ण पुरिसो। दव्वुवभोगे अरदो णाणी वि ण वज्झदि तहेव।।१९६।।
अर्थ- जैसे कोई पुरुष बिना रागभाव के मदिरा को पीता हुआ भी मतवाला नहीं होता। ऐसे ही ज्ञानी जीव अरतिभाव से द्रव्यों का उपभोग करता हुआ भी कर्मों से नहीं बँधता है।
विशेषार्थ-जिस प्रकार कोई पुरुष मदिरा के प्रति अत्यन्त अरत है अर्थात्
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