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________________ निर्जराधिकार है वह बन्ध का ही निमित्त है। वही उपभोग रागादिकभावों का अभाव होने से सम्यग्दृष्टि जीव के निर्जरा का ही निमित्त होता है । इस कथन से यहाँ द्रव्यनिर्जरा का स्वरूप कहा गया है। सम्यग्दर्शन की महिमा बचन के अगम्य है, सम्यग्दर्शन होते ही गुणश्रेणी निर्जरा का प्रारम्भ हो जाता है। सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियों के द्वारा जो चेतन-अचेतन द्रव्यों का उपभोग करता है उसमें उसकी अन्तरंग से विरक्ति रहती है | चारित्रमोह के उदय की बलबत्ता से वह विषयों के उपभोग में प्रवृत्त होता है । पर अन्तरंग उसका उस ओर से विरक्त ही होता है । यही कारण है कि सम्यग्दृष्टिजीव के कर्म, विपाकावस्था आने पर अपना फल देकर खिर तो जाते हैं, पर नवीन बन्ध के कारण नहीं बनते।।१९३।। २२५ अब भावनिर्जरा का स्वरूप कहते हैं दव्वे उवभुंजंते णियमा जायदि सुहं वा दुक्खं वा । तं सुह- दुक्खमुदिण्णं वेददि अह णिज्जरं जादि । । १९४ । । अर्थ-परद्रव्य के उपभुक्त होने पर नियम से सुख और दुःख उत्पन्न होता है, उदय में आये हुए उस सुख और दुःख को यह जीव अनुभवता है, फिर आस्वाद देकर वह कर्मद्रव्यनिर्जरा को प्राप्त होता है । विशेषार्थ - जिस काल में परद्रव्य का उपभोग होता है उस काल में उसके निमित्त से साता अथवा असाता का अतिक्रमण न कर जीव के या तो सुखरूप वेदन होता है अथवा दुःखरूप वेदन होता है यह नियम है। जिस समय उसका वेदन होता है उस समय मिथ्यादृष्टि जीव के रागादिभावों का सद्भाव होने से बन्ध का निमित्त होकर निर्जीर्यमाण होकर भी अनिर्जीर्यमाण होता हुआ बन्ध ही होता है और वही वेदन सम्यग्दृष्टि जीव के रागादिक भावों का अभाव होने से बन्ध का निमित्त न होकर निर्जीर्यमाण होता हुआ निर्जरा को प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य यह है कि परद्रव्य के उपभोग के समय सुख अथवा दुःख का होना अवश्यंभावी है। मिथ्यादृष्टि जीव रागादिक विकारीभावों के कारण उस सुख अथवा दुःखरूप परिणमन को आत्मा का स्वभाव जानकर आगामी नवीन बन्ध करता है। इसलिये उसका कर्म निर्जीर्यमाण होनेपर भी अनिर्जीर्यमाण जैसा रहता है । परन्तु सम्यग्दृष्टिजीव अनन्त संसार के कारणभूत रागादिक विकारीभावों का अभाव होने से उस सुख अथवा दुःखरूप परिणमन को आत्मा का स्वभाव नहीं समझता है, इसलिये उसका कर्म निर्जीर्यमाण होकर निर्जरा को ही प्राप्त होता है, आगामी बन्ध का कारण नहीं होता है। ज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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